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Gita Govindam dvitiyah sargah - Aklesh Keshavah (गीतगोविन्दं द्वितीयः सर्गः - अक्लेश केशवः)
गीतगोविन्दं द्वितीयः सर्गः - अक्लेश केशवः
(Gita Govindam dvitiyah sargah - Aklesh Keshavah)
॥ द्वितीयः सर्गः ॥
॥ अक्लेशकेशवः ॥
विहरति वने राधा साधारणप्रणये हरौ विगलितनिजोत्कर्षादीर्ष्यावशेन गतान्यतः ।
क्वचिदपि लताकुञ्जे गुञ्जन्मधुव्रतमण्डली-मुखरशिखरे लीना दीनाप्युवाच रहः सखीम् ॥ 14 ॥
॥ गीतं 5 ॥
सञ्चरदधरसुधामधुरध्वनिमुखरितमोहनवंशम् ।
चलितदृगञ्चलचञ्चलमौलिकपोलविलोलवतंसम् ॥
रासे हरिमिह विहितविलासं स्मरति मनो मम कृतपरिहासम् ॥ 1 ॥
चन्द्रकचारुमयूरशिखण्डकमण्डलवलयितकेशम् ।
प्रचुरपुरन्दरधनुरनुरञ्जितमेदुरमुदिरसुवेशम् ॥ 2 ॥
गोपकदम्बनितम्बवतीमुखचुम्बनलम्भितलोभम् ।
बन्धुजीवमधुराधरपल्लवमुल्लसितस्मितशोभम् ॥ 3 ॥
विपुलपुलकभुजपल्लववलयितवल्लवयुवतिसहस्रम् ।
करचरणोरसि मणिगणभूषणकिरणविभिन्नतमिस्रम् ॥ 4 ॥
जलदपटलवलदिन्दुविनन्दकचन्दनतिलकललाटम् ।
पीनपयोधरपरिसरमर्दननिर्दयहृदयकवाटम् ॥ 5 ॥
मणिमयमकरमनोहरकुण्डलमण्डितगण्डमुदारम् ।
पीतवसनमनुगतमुनिमनुजसुरासुरवरपरिवारम् ॥ 6 ॥
विशदकदम्बतले मिलितं कलिकलुषभयं शमयन्तम् ।
मामपि किमपि तरङ्गदनङ्गदृशा मनसा रमयन्तम् ॥ 7 ॥
श्रीजयदेवभणितमतिसुन्दरमोहनमधुरिपुरूपम् ।
हरिचरणस्मरणं प्रति सम्प्रति पुण्यवतामनुरूपम् ॥ 8 ॥
गणयति गुणग्रामं भामं भ्रमादपि नेहते वहति च परितोषं दोषं विमुञ्चति दूरतः ।
युवतिषु वलस्तृष्णे कृष्णे विहारिणि मां विना पुनरपि मनो वामं कामं करोति करोमि किम् ॥ 15 ॥
॥ गीतं 6 ॥
निभृतनिकुञ्जगृहं गतया निशि रहसि निलीय वसन्तम् ।
चकितविलोकितसकलदिशा रतिरभसरसेन हसन्तम् ॥
सखि हे केशिमथनमुदारं रमय मया सह मदनमनोरथभावितया सविकारम् ॥ 1 ॥
प्रथमसमागमलज्जितया पटुचाटुशतैरनुकूलम् ।
मृदुमधुरस्मितभाषितया शिथिलीकृतजघनदुकूलम् ॥ 2 ॥
किसलयशयननिवेशितया चिरमुरसि ममैव शयानम् ।
कृतपरिरम्भणचुम्बनया परिरभ्य कृताधरपानम् ॥ 3 ॥
अलसनिमीलितलोचनया पुलकावलिललितकपोलम् ।
श्रमजलसकलकलेवरया वरमदनमदादतिलोलम् ॥ 4 ॥
कोकिलकलरवकूजितया जितमनसिजतन्त्रविचारम् ।
श्लथकुसुमाकुलकुन्तलया नखलिखितघनस्तनभारम् ॥ 5 ॥
चरणरणितमनिनूपुरया परिपूरितसुरतवितानम् ।
मुखरविशृङ्खलमेखलया सकचग्रहचुम्बनदानम् ॥ 6 ॥
रतिसुखसमयरसालसया दरमुकुलितनयनसरोजम् ।
निःसहनिपतिततनुलतया मधुसूदनमुदितमनोजम् ॥ 7 ॥
श्रीजयदेवभणितमिदमतिशयमधुरिपुनिधुवनशीलम् ।
सुखमुत्कण्ठितगोपवधूकथितं वितनोतु सलीलम् ॥ 8 ॥
हस्तस्रस्तविलासवंशमनृजुभ्रूवल्लिमद्बल्लवी-वृन्दोत्सारिदृगन्तवीक्षितमतिस्वेदार्द्रगण्डस्थलम् ।
मामुद्वीक्ष्य विलक्षितं स्मितसुधामुग्धाननं कानने गोविन्दं व्रजसुन्दरीगणवृतं पश्यामि हृष्यामि च ॥ 16 ॥
दुरालोकस्तोकस्तबकनवकाशोकलतिका-विकासः कासारोपवनपवनोऽपि व्यथयति ।
अपि भ्राम्यद्भृङ्गीरणितरमणीया न मुकुल-प्रसूतिश्चूतानां सखि शिखरिणीयं सुखयति ॥ 17 ॥
॥ इति गीतगोविन्दे अक्लेशकेशवो नाम द्वितीयः सर्गः ॥
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