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Narayaniyam Dashaka 92 (नारायणीयं दशक 92)
नारायणीयं दशक 92 (Narayaniyam Dashaka 92)
वेदैस्सर्वाणि कर्माण्यफलपरतया वर्णितानीति बुध्वा
तानि त्वय्यर्पितान्येव हि समनुचरन् यानि नैष्कर्म्यमीश ।
मा भूद्वेदैर्निषिद्धे कुहचिदपि मनःकर्मवाचां प्रवृत्ति-
र्दुर्वर्जं चेदवाप्तं तदपि खलु भवत्यर्पये चित्प्रकाशे ॥1॥
यस्त्वन्यः कर्मयोगस्तव भजनमयस्तत्र चाभीष्टमूर्तिं
हृद्यां सत्त्वैकरूपां दृषदि हृदि मृदि क्वापि वा भावयित्वा ।
पुष्पैर्गंधैर्निवेद्यैरपि च विरचितैः शक्तितो भक्तिपूतै-
र्नित्यं वर्यां सपर्यां विदधदयि विभो त्वत्प्रसादं भजेयम् ॥2॥
स्त्रीशूद्रास्त्वत्कथादिश्रवणविरहिता आसतां ते दयार्हा-
स्त्वत्पादासन्नयातान् द्विजकुलजनुषो हंत शोचाम्यशांतान् ।
वृत्त्यर्थं ते यजंतो बहुकथितमपि त्वामनाकर्णयंतो
दृप्ता विद्याभिजात्यैः किमु न विदधते तादृशं मा कृथा माम् ॥3॥
पापोऽयं कृष्णरामेत्यभिलपति निजं गूहितुं दुश्चरित्रं
निर्लज्जस्यास्य वाचा बहुतरकथनीयानि मे विघ्नितानि ।
भ्राता मे वंध्यशीलो भजति किल सदा विष्णुमित्थं बुधांस्ते
निंदंत्युच्चैर्हसंति त्वयि निहितमतींस्तादृशं मा कृथा माम् ॥4॥
श्वेतच्छायं कृते त्वां मुनिवरवपुषं प्रीणयंते तपोभि-
स्त्रेतायां स्रुक्स्रुवाद्यंकितमरुणतनुं यज्ञरूपं यजंते ।
सेवंते तंत्रमार्गैर्विलसदरिगदं द्वापरे श्यामलांगं
नीलं संकीर्तनाद्यैरिह कलिसमये मानुषास्त्वां भजंते ॥5॥
सोऽयं कालेयकालो जयति मुररिपो यत्र संकीर्तनाद्यै-
र्निर्यत्नैरेव मार्गैरखिलद न चिरात्त्वत्प्रसादं भजंते ।
जातास्त्रेताकृतादावपि हि किल कलौ संभवं कामयंते
दैवात्तत्रैव जातान् विषयविषरसैर्मा विभो वंचयास्मान् ॥6॥
भक्तास्तावत्कलौ स्युर्द्रमिलभुवि ततो भूरिशस्तत्र चोच्चै:
कावेरीं ताम्रपर्णीमनु किल कृतमालां च पुण्यां प्रतीचीम् ।
हा मामप्येतदंतर्भवमपि च विभो किंचिदंचद्रसं त्व-
य्याशापाशैर्निबध्य भ्रमय न भगवन् पूरय त्वन्निषेवाम् ॥7॥
दृष्ट्वा धर्मद्रुहं तं कलिमपकरुणं प्राङ्महीक्षित् परीक्षित्
हंतुं व्याकृष्टखड्गोऽपि न विनिहतवान् सारवेदी गुणांशात् ।
त्वत्सेवाद्याशु सिद्ध्येदसदिह न तथा त्वत्परे चैष भीरु-
र्यत्तु प्रागेव रोगादिभिरपहरते तत्र हा शिक्षयैनम् ॥8॥
गंगा गीता च गायत्र्यपि च तुलसिका गोपिकाचंदनं तत्
सालग्रामाभिपूजा परपुरुष तथैकादशी नामवर्णाः ।
एतान्यष्टाप्ययत्नान्यपि कलिसमये त्वत्प्रसादप्रवृद्ध्या
क्षिप्रं मुक्तिप्रदानीत्यभिदधुः ऋषयस्तेषु मां सज्जयेथाः ॥9॥
देवर्षीणां पितृणामपि न पुनः ऋणी किंकरो वा स भूमन् ।
योऽसौ सर्वात्मना त्वां शरणमुपगतस्सर्वकृत्यानि हित्वा ।
तस्योत्पन्नं विकर्माप्यखिलमपनुदस्येव चित्तस्थितस्त्वं
तन्मे पापोत्थतापान् पवनपुरपते रुंधि भक्तिं प्रणीयाः ॥10॥
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