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Narayaniyam Dashaka 46 (नारायणीयं दशक 46)
नारायणीयं दशक 46 (Narayaniyam Dashaka 46)
अयि देव पुरा किल त्वयि स्वयमुत्तानशये स्तनंधये ।
परिजृंभणतो व्यपावृते वदने विश्वमचष्ट वल्लवी ॥1॥
पुनरप्यथ बालकैः समं त्वयि लीलानिरते जगत्पते ।
फलसंचयवंचनक्रुधा तव मृद्भोजनमूचुरर्भकाः ॥2॥
अयि ते प्रलयावधौ विभो क्षितितोयादिसमस्तभक्षिणः ।
मृदुपाशनतो रुजा भवेदिति भीता जननी चुकोप सा ॥3॥
अयि दुर्विनयात्मक त्वया किमु मृत्सा बत वत्स भक्षिता ।
इति मातृगिरं चिरं विभो वितथां त्वं प्रतिजज्ञिषे हसन् ॥4॥
अयि ते सकलैर्विनिश्चिते विमतिश्चेद्वदनं विदार्यताम् ।
इति मातृविभर्त्सितो मुखं विकसत्पद्मनिभं व्यदारयः ॥5॥
अपि मृल्लवदर्शनोत्सुकां जननीं तां बहु तर्पयन्निव ।
पृथिवीं निखिलां न केवलं भुवनान्यप्यखिलान्यदीदृशः ॥6॥
कुहचिद्वनमंबुधिः क्वचित् क्वचिदभ्रं कुहचिद्रसातलम् ।
मनुजा दनुजाः क्वचित् सुरा ददृशे किं न तदा त्वदानने ॥7॥
कलशांबुधिशायिनं पुनः परवैकुंठपदाधिवासिनम् ।
स्वपुरश्च निजार्भकात्मकं कतिधा त्वां न ददर्श सा मुखे ॥8॥
विकसद्भुवने मुखोदरे ननु भूयोऽपि तथाविधाननः ।
अनया स्फुटमीक्षितो भवाननवस्थां जगतां बतातनोत् ॥9॥
धृततत्त्वधियं तदा क्षणं जननीं तां प्रणयेन मोहयन् ।
स्तनमंब दिशेत्युपासजन् भगवन्नद्भुतबाल पाहि माम् ॥10॥
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