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Narayaniyam Dashaka 81 (नारायणीयं दशक 81)
नारायणीयं दशक 81 (Narayaniyam Dashaka 81)
स्निग्धां मुग्धां सततमपि तां लालयन् सत्यभामां
यातो भूयः सह खलु तया याज्ञसेनीविवाहम् ।
पार्थप्रीत्यै पुनरपि मनागास्थितो हस्तिपुर्यां
सशक्रप्रस्थं पुरमपि विभो संविधायागतोऽभूः ॥1॥
भद्रां भद्रां भवदवरजां कौरवेणार्थ्यमानां
त्वद्वाचा तामहृत कुहनामस्करी शक्रसूनुः ।
तत्र क्रुद्धं बलमनुनयन् प्रत्यगास्तेन सार्धं
शक्रप्रस्थं प्रियसखमुदे सत्यभामासहायः ॥2॥
तत्र क्रीडन्नपि च यमुनाकूलदृष्टां गृहीत्वा
तां कालिंदीं नगरमगमः खांडवप्रीणिताग्निः ।
भ्रातृत्रस्तां प्रणयविवशां देव पैतृष्वसेयीं
राज्ञां मध्ये सपदि जहृषे मित्रविंदामवंतीम् ॥3॥
सत्यां गत्वा पुनरुदवहो नग्नजिन्नंदनां तां
बध्वा सप्तापि च वृषवरान् सप्तमूर्तिर्निमेषात् ।
भद्रां नाम प्रददुरथ ते देव संतर्दनाद्या-
स्तत्सोदर्या वरद भवतः साऽपि पैतृष्वसेयी ॥4॥
पार्थाद्यैरप्यकृतलवनं तोयमात्राभिलक्ष्यं
लक्षं छित्वा शफरमवृथा लक्ष्मणां मद्रकन्याम् ।
अष्टावेवं तव समभवन् वल्लभास्तत्र मध्ये
शुश्रोथ त्वं सुरपतिगिरा भौमदुश्चेष्टितानि ॥5॥
स्मृतायातं पक्षिप्रवरमधिरूढस्त्वमगमो
वहन्नंके भामामुपवनमिवारातिभवनम् ।
विभिंदन् दुर्गाणि त्रुटितपृतनाशोणितरसैः
पुरं तावत् प्राग्ज्योतिषमकुरुथाः शोणितपुरम् ॥6॥
मुरस्त्वां पंचास्यो जलधिवनमध्यादुदपतत्
स चक्रे चक्रेण प्रदलितशिरा मंक्षु भवता ।
चतुर्दंतैर्दंतावलपतिभिरिंधानसमरं
रथांगेन छित्वा नरकमकरोस्तीर्णनरकम् ॥7॥
स्तुतो भूम्या राज्यं सपदि भगदत्तेऽस्य तनये
गजंचैकं दत्वा प्रजिघयिथ नागान्निजपुरीम् ।
खलेनाबद्धानां स्वगतमनसां षोडश पुनः
सहस्राणि स्त्रीणामपि च धनराशिं च विपुलम् ॥8॥
भौमापाहृतकुंडलं तददितेर्दातुं प्रयातो दिवं
शक्राद्यैर्महितः समं दयितया द्युस्त्रीषु दत्तह्रिया ।
हृत्वा कल्पतरुं रुषाभिपतितं जित्वेंद्रमभ्यागम-
स्तत्तु श्रीमददोष ईदृश इति व्याख्यातुमेवाकृथाः ॥9॥
कल्पद्रुं सत्यभामाभवनभुवि सृजन् द्व्यष्टसाहस्रयोषाः
स्वीकृत्य प्रत्यगारं विहितबहुवपुर्लालयन् केलिभेदैः ।
आश्चर्यान्नारदालोकितविविधगतिस्तत्र तत्रापि गेहे
भूयः सर्वासु कुर्वन् दश दश तनयान् पाहि वातालयेश ॥10॥
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