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Narayaniyam Dashaka 24 (नारायणीयं दशक 24)
नारायणीयं दशक 24 (Narayaniyam Dashaka 24)
हिरण्याक्षे पोत्रिप्रवरवपुषा देव भवता
हते शोकक्रोधग्लपितधृतिरेतस्य सहजः ।
हिरण्यप्रारंभः कशिपुरमरारातिसदसि
प्रतिज्ञमातेने तव किल वधार्थं मधुरिपो ॥1॥
विधातारं घोरं स खलु तपसित्वा नचिरतः
पुरः साक्षात्कुर्वन् सुरनरमृगाद्यैरनिधनम् ।
वरं लब्ध्वा दृप्तो जगदिह भवन्नायकमिदं
परिक्षुंदन्निंद्रादहरत दिवं त्वामगणयन् ॥2॥
निहंतुं त्वां भूयस्तव पदमवाप्तस्य च रिपो-
र्बहिर्दृष्टेरंतर्दधिथ हृदये सूक्ष्मवपुषा ।
नदन्नुच्चैस्तत्राप्यखिलभुवनांते च मृगयन्
भिया यातं मत्वा स खलु जितकाशी निववृते ॥3॥
ततोऽस्य प्रह्लादः समजनि सुतो गर्भवसतौ
मुनेर्वीणापाणेरधिगतभवद्भक्तिमहिमा ।
स वै जात्या दैत्यः शिशुरपि समेत्य त्वयि रतिं
गतस्त्वद्भक्तानां वरद परमोदाहरणताम् ॥4॥
सुरारीणां हास्यं तव चरणदास्यं निजसुते
स दृष्ट्वा दुष्टात्मा गुरुभिरशिशिक्षच्चिरममुम् ।
गुरुप्रोक्तं चासाविदमिदमभद्राय दृढमि-
त्यपाकुर्वन् सर्वं तव चरणभक्त्यैव ववृधे ॥ 5 ॥
अधीतेषु श्रेष्ठं किमिति परिपृष्टेऽथ तनये
भवद्भक्तिं वर्यामभिगदति पर्याकुलधृतिः ।
गुरुभ्यो रोषित्वा सहजमतिरस्येत्यभिविदन्
वधोपायानस्मिन् व्यतनुत भवत्पादशरणे ॥6॥
स शूलैराविद्धः सुबहु मथितो दिग्गजगणै-
र्महासर्पैर्दष्टोऽप्यनशनगराहारविधुतः ।
गिरींद्रवक्षिप्तोऽप्यहह! परमात्मन्नयि विभो
त्वयि न्यस्तात्मत्वात् किमपि न निपीडामभजत ॥7॥
ततः शंकाविष्टः स पुनरतिदुष्टोऽस्य जनको
गुरूक्त्या तद्गेहे किल वरुणपाशैस्तमरुणत् ।
गुरोश्चासान्निध्ये स पुनरनुगान् दैत्यतनयान्
भवद्भक्तेस्तत्त्वं परममपि विज्ञानमशिषत् ॥8॥
पिता शृण्वन् बालप्रकरमखिलं त्वत्स्तुतिपरं
रुषांधः प्राहैनं कुलहतक कस्ते बलमिति ।
बलं मे वैकुंठस्तव च जगतां चापि स बलं
स एव त्रैलोक्यं सकलमिति धीरोऽयमगदीत् ॥9॥
अरे क्वासौ क्वासौ सकलजगदात्मा हरिरिति
प्रभिंते स्म स्तंभं चलितकरवालो दितिसुतः ।
अतः पश्चाद्विष्णो न हि वदितुमीशोऽस्मि सहसा
कृपात्मन् विश्वात्मन् पवनपुरवासिन् मृडय माम् ॥10॥
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