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Narayaniyam Dashaka 51 (नारायणीयं दशक 51)
नारायणीयं दशक 51 (Narayaniyam Dashaka 51)
कदाचन व्रजशिशुभिः समं भवान्
वनाशने विहितमतिः प्रगेतराम् ।
समावृतो बहुतरवत्समंडलैः
सतेमनैर्निरगमदीश जेमनैः ॥1॥
विनिर्यतस्तव चरणांबुजद्वया-
दुदंचितं त्रिभुवनपावनं रजः ।
महर्षयः पुलकधरैः कलेबरै-
रुदूहिरे धृतभवदीक्षणोत्सवाः ॥2॥
प्रचारयत्यविरलशाद्वले तले
पशून् विभो भवति समं कुमारकैः ।
अघासुरो न्यरुणदघाय वर्तनी
भयानकः सपदि शयानकाकृतिः ॥3॥
महाचलप्रतिमतनोर्गुहानिभ-
प्रसारितप्रथितमुखस्य कानने ।
मुखोदरं विहरणकौतुकाद्गताः
कुमारकाः किमपि विदूरगे त्वयि ॥4॥
प्रमादतः प्रविशति पन्नगोदरं
क्वथत्तनौ पशुपकुले सवात्सके ।
विदन्निदं त्वमपि विवेशिथ प्रभो
सुहृज्जनं विशरणमाशु रक्षितुम् ॥5॥
गलोदरे विपुलितवर्ष्मणा त्वया
महोरगे लुठति निरुद्धमारुते ।
द्रुतं भवान् विदलितकंठमंडलो
विमोचयन् पशुपपशून् विनिर्ययौ ॥6॥
क्षणं दिवि त्वदुपगमार्थमास्थितं
महासुरप्रभवमहो महो महत् ।
विनिर्गते त्वयि तु निलीनमंजसा
नभःस्थले ननृतुरथो जगुः सुराः ॥7॥
सविस्मयैः कमलभवादिभिः सुरै-
रनुद्रुतस्तदनु गतः कुमारकैः ।
दिने पुनस्तरुणदशामुपेयुषि
स्वकैर्भवानतनुत भोजनोत्सवम् ॥8॥
विषाणिकामपि मुरलीं नितंबके
निवेशयन् कबलधरः करांबुजे ।
प्रहासयन् कलवचनैः कुमारकान्
बुभोजिथ त्रिदशगणैर्मुदा नुतः ॥9॥
सुखाशनं त्विह तव गोपमंडले
मखाशनात् प्रियमिव देवमंडले ।
इति स्तुतस्त्रिदशवरैर्जगत्पते
मरुत्पुरीनिलय गदात् प्रपाहि माम् ॥10॥
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