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Uddhava Gita - Chapter 8 (उद्धवगीता - अस्श्टमोऽध्यायः)
उद्धवगीता - अस्श्टमोऽध्यायः (Uddhava Gita - Chapter 8)
अथास्श्टमोऽध्यायः ।
सुखं ऐंद्रियकं राजन् स्वर्गे नरकः एव च ।
देहिनः यत् यथा दुःखं तस्मात् न इच्छेत तत् बुधाः ॥ 1॥
ग्रासं सुमृष्टं विरसं महांतं स्तोकं एव वा ।
यदृच्छया एव अपतितं ग्रसेत् आजगरः अक्रियः ॥ 2॥
शयीत अहानि भूरीणि निराहारः अनुपक्रमः ।
यदि न उपनमेत् ग्रासः महाहिः इव दिष्टभुक् ॥ 3॥
ओजः सहोबलयुतं बिभ्रत् देहं अकर्मकम् ।
शयानः वीतनिद्रः च नेहेत इंद्रियवान् अपि ॥ 4॥
मुनिः प्रसन्नगंभीरः दुर्विगाह्यः दुरत्ययः ।
अनंतपारः हि अक्षोभ्यः स्तिमित उदः इव अर्णवः ॥ 5॥
समृद्धकामः हीनः वा नारायणपरः मुनिः ।
न उत्सर्पेत न शुष्येत सरिद्भिः इव सागरः ॥ 6॥
दृष्ट्वा स्त्रियं देवमायां तत् भावैः अजितेंद्रियः ।
प्रलोभितः पतति अंधे तमसि अग्नौ पतंगवत् ॥ 7॥
योषित् हिरण्य आभरण अंबरादि
द्रव्येषु मायारचितेषु मूढः ।
प्रलोभितात्मा हि उपभोगबुद्ध्या
पतंगवत् नश्यति नष्टदृष्टिः ॥ 8॥
स्तोकं स्तोकं ग्रसेत् ग्रासं देहः वर्तेत यावता ।
गृहान् अहिंसत् न आतिष्ठेत् वृत्तिं माधुकरीं मुनिः ॥ 9॥
अणुभ्यः च महद्भ्यः च शास्त्रेभ्यः कुशलः नरः ।
सर्वतः सारं आदद्यात् पुष्पेभ्यः इव षट्पदः ॥ 10॥
सायंतनं श्वस्तनं वा न संगृह्णीत भिक्षितम् ।
पाणिपात्र उदरामत्रः मक्षिका इव न संग्रही ॥ 11॥
सायंतनं श्वस्तनं वा न संगृह्णीत भिक्षुकः ।
मक्षिकाः इव संगृह्णन् सह तेन विनश्यति ॥ 12॥
पद अपि युवतीं भिक्षुः न स्पृशेत् दारवीं अपि ।
स्पृशन् करीव बध्येत करिण्या अंगसंगतः ॥ 13॥
न अधिगच्छेत् स्त्रियं प्राज्ञः कर्हिचित् मृत्युं आत्मनः ।
बल अधिकैः स हन्येत गजैः अन्यैः गजः यथा ॥ 14॥
न देयं न उपभोग्यं च लुब्धैः यत् दुःख संचितम् ।
भुंक्ते तत् अपि तत् च अन्यः मधुहेव अर्थवित् मधु ॥ 15॥
सुख दुःख उपार्जितैः वित्तैः आशासानां गृह आशिषः ।
मधुहेव अग्रतः भुंक्ते यतिः वै गृहमेधिनाम् ॥ 16॥
ग्राम्यगीतं न श्रुणुयात् यतिः वनचरः क्वचित् ।
शिखेत हरिणात् वद्धात् मृगयोः गीतमोहितात् ॥ 17॥
नृत्यवादित्रगीतानि जुषन् ग्राम्याणि योषिताम् ।
आसां क्रीडनकः वश्यः ऋष्यशऋंगः मृगीसुतः ॥ 18॥
जिह्वया अतिप्रमाथिन्या जनः रसविमोहितः ।
मृत्युं ऋच्छति असत् बुद्धिः मीनः तु बडिशैः यथा ॥ 19॥
इंद्रियाणि जयंति आशुः निराहाराः मनीषिणः ।
वर्जयित्वा तु रसनं तत् निरन्नस्य वर्धते ॥ 20॥
तावत् जितेंद्रियः न स्यात् विजितानि इंद्रियः पुमान् ।
न जयेत् रसनं यावत् जितं सर्वं जिते रसे ॥ 21॥
पिंगला नाम वेश्या आसीत् विदेहनगरे पुरा ।
तस्या मे शिक्षितं किंचित् निबोध नृपनंदन ॥ 22॥
सा स्वैरिण्येकदा कांतं संकेत उपनेष्यती ।
अभूत्काले बहिर्द्वारि बिभ्रती रूपमुत्तमम् ॥ 23॥
मार्ग आगच्छतो वीक्ष्य पुरुषान्पुरुषर्षभ ।
तान् शुल्कदान्वित्तवतः कांतान्मेनेऽर्थकामुका ॥ 24॥
आगतेष्वपयातेषु सा संकेतोपजीवनी ।
अप्यन्यो वित्तवान्कोऽपि मामुपैष्यति भूरिदः ॥ 25॥
एअवं दुराशया ध्वस्तनिद्रा द्वार्यवलंबती ।
निर्गच्छंती प्रविशती निशीथं समपद्यत ॥ 26॥
तस्या वित्ताशया शुष्यद्वक्त्राया दीनचेतसः ।
निर्वेदः परमो जज्ञे चिंताहेतुः सुखावहः ॥ 27॥
तस्या निर्विण्णचित्ताया गीतं श्रुणु यथा मम ।
निर्वेद आशापाशानां पुरुषस्य यथा ह्यसिः ॥ 28॥
न हि अंगाजातनिर्वेदः देहबंधं जिहासति ।
यथा विज्ञानरहितः मनुजः ममतां नृप ॥ 29॥
पिंगला उवाच ।
अहो मे मोहविततिं पश्यत अविजित आत्मनः ।
या कांतात् असतः कामं कामये येन बालिशा ॥ 30॥
संतं समीपे रमणं रतिप्रदं
वित्तप्रदं नित्यं इमं विहाय ।
अकामदं दुःखभय आदि शोक
मोहप्रदं तुच्छं अहं भजे अज्ञा ॥ 31॥
अहो मयात्मा परितापितो वृथा
सांकेत्यवृत्त्याऽतिविगर्ह्यवार्तया ।
स्त्रैणान्नराद्याऽर्थतृषोऽनुशोच्या
त्क्रीतेन वित्तं रतिमात्मनेच्छती ॥ 32॥
यदस्थिभिर्निर्मितवंशवंश्य
स्थूणं त्वचा रोमनखैः पिनद्धम् ।
क्षरन्नवद्वारमगारमेतद्
विण्मूत्रपूर्णं मदुपैति कान्या ॥ 33॥
विदेहानां पुरे ह्यस्मिन्नहमेकैव मूढधीः ।
याऽन्यस्मिच्छंत्यसत्यस्मादात्मदात्काममच्युतात् ॥ 34॥
सुहृत्प्रेष्ठतमो नाथ आत्मा चायं शरीरिणाम् ।
तं विक्रीयात्मनैवाहं रमेऽनेन यथा रमा ॥ 35॥
कियत्प्रियं ते व्यभजन्कामा ये कामदा नराः ।
आद्यंतवंतो भार्याया देवा वा कालविद्रुताः ॥ 36॥
नूनं मे भगवान् प्रीतः विष्णुः केन अपि कर्मणा ।
निर्वेदः अयं दुराशाया यत् मे जातः सुखावहः ॥ 37॥
मैवं स्युर्मंदभग्यायाः क्लेशा निर्वेदहेतवः ।
येनानुबंधं निहृत्य पुरुषः शममृच्छति ॥ 38॥
तेन उपकृतं आदाय शिरसा ग्राम्यसंगताः ।
त्यक्त्वा दुराशाः शरणं व्रजामि तं अधीश्वरम् ॥ 39॥
संतुष्टा श्रद्दधत्येतद्यथालाभेन जीवती ।
विहराम्यमुनैवाहमात्मना रमणेन वै ॥ 40॥
संसारकूपे पतितं विषयैर्मुषितेक्षणम् ।
ग्रस्तं कालाहिनाऽऽत्मानं कोऽन्यस्त्रातुमधीश्वरः ॥ 41॥
आत्मा एव हि आत्मनः गोप्ता निर्विद्येत यदाखिलात् ।
अप्रमत्तः इदं पश्यत् ग्रस्तं कालाहिना जगत् ॥ 42॥
ब्राह्मण उवाच ।
एअवं व्यवसितमतिर्दुराशां कांततर्षजाम् ।
छित्वोपशममास्थाय शय्यामुपविवेश सा ॥ 43॥
आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम् ।
यथा संछिद्य कांताशां सुखं सुष्वाप पिंगला ॥ 44॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायामेकादशस्कंधे पिंगलोपाख्याऽनेष्टमोऽध्यायः ॥
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Shri Krishna Ashtakam (श्री कृष्णाष्टकम्)
श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का आठवां अवतार माना जाता है। पुराणों के अनुसार इनका जन्म द्वापर युग में माना गया है। भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए लोग उनकी पूजा करते है उन्हे माखन खिलाते है। इन्हे श्रीकृष्ण अष्टकम् का पाठ करके भी प्रसन्न किया जा सकता है। रोज श्रीकृष्ण अष्टकम पढ़ने पर विशेष पुण्य लाभ मिलता है। भगवान के इस पाठ को करने वाले मनुष्य का जीवन में कभी कोई कार्य नहीं रुकता और उसे हमेशा विजय की प्राप्ति होती है। नियमित रूप से यदि कोई व्यक्ति श्रीकृष्ण अष्टकम् का पाठ करता है तो भगवान उस पर अपनी कृपा दृष्टी बनाएं रखते है और वह हमेशा विजयी रहता है।Ashtakam
Madhura Ashtakam (मधुरा अष्टकम्)
Madhura Ashtakam (मधुरा अष्टकम): श्री कृष्ण माधुराष्टकम् का धार्मिक ग्रंथों में बहुत अधिक महत्व है, और इसमें श्री कृष्ण की "माधुरता" का जो चित्रण किया गया है, वह अन्य सभी स्तुतियों से बिलकुल अलग है। इस छोटे से स्तोत्र में मुरली मनोहर का अद्भुत रूप सामने आता है, साथ ही उनके सर्वव्यापी और भौतिक रूप में उनके भक्तों के प्रति स्नेह का भी वर्णन किया जाता है। यह स्तोत्र श्री वल्लभाचार्य द्वारा 1478 ई. में रचित था, जो भगवान श्री कृष्ण की महान माधुरता का वर्णन करता है। हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। भगवान कृष्ण की पूजा करने से जीवन में सुंदरता, समृद्धि और ऐश्वर्य प्राप्त होता है। माधुराष्टकम् संस्कृत में रचित है और इसे समझना आसान है। इस स्तोत्र में 'मधुरम्' शब्द का बार-बार उपयोग किया गया है, जो भगवान श्री कृष्ण के सुंदर रूप और उनकी माधुरता को व्यक्त करता है। श्री कृष्ण माधुराष्टकम् में कुल 8 श्लोक होते हैं, और हर श्लोक में 'मधुर' शब्द का प्रयोग 7 बार किया गया है। 'आष्ट' का अर्थ है आठ, और 'मधुराष्टकम्' का मतलब है "आठ श्लोकों वाला मधुर स्तोत्र"। इस स्तोत्र में भगवान श्री कृष्ण के रूप, उनके नृत्य, उनके लीला, उनके प्यारे रूप आदि की इतनी सुंदरता और माधुर्यता का वर्णन किया गया है कि भक्त केवल भगवान कृष्ण के रूप को ही नहीं, बल्कि उनके सम्पूर्ण अस्तित्व को भी आकर्षण के रूप में महसूस करते हैं। भगवान श्री कृष्ण के होठ, उनका रूप, उनकी प्यारी मुस्कान, उनकी आँखें, उनका त्रिभंगी रूप, सब कुछ 'मधुर' है। हिंदू मान्यता के अनुसार, श्री कृष्ण माधुराष्टकम् का नियमित पाठ करने से भगवान कृष्ण प्रसन्न होते हैं और उनके आशीर्वाद से जीवन में सुख, समृद्धि और सौंदर्य प्राप्त होता है।Ashtakam
Bhagwan Natwar Ji Arti (भगवान नटवर जी की आरती)
भगवान नटवर जी की आरती श्रीकृष्ण के नटखट और मनमोहक स्वरूप की महिमा का गुणगान करती है। इस आरती में भगवान श्रीकृष्ण (Lord Krishna) को नटवर (Divine Performer) और मुरलीधर (Flute Player) के रूप में पूजित किया गया है, जो भक्तों (Devotees) के कष्ट हरने वाले और आनंद (Joy) प्रदान करने वाले हैं। भगवान नटवर जी की यह आरती उनकी लीलाओं (Divine Pastimes) और सर्वशक्तिमान स्वरूप (Omnipotent Form) का स्मरण कराती है। यह आरती भगवान कृष्ण के प्रेम (Love), भक्ति (Devotion) और करुणा (Compassion) को व्यक्त करती है, जो जीवन के हर पहलू को आध्यात्मिक प्रकाश (Spiritual Light) से भर देती है। भगवान नटवर जी की आरती में उनकी मुरली (Flute) और उनके नटखट स्वभाव (Playful Nature) का विशेष वर्णन किया गया है, जो भक्तों को भगवान के साथ गहरा आध्यात्मिक संबंध स्थापित करने में मदद करता है।Arti
Shri Krishna Sharanam mam (श्रीकृष्णः शरणं मम)
श्री कृष्ण शरणम मम: भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण का जन्म मथुरा में देवकी और वसुदेव के घर हुआ था, और उन्हें वृंदावन में नंद और यशोदा ने पाल-पोसा। चंचल और शरारती भगवान श्री कृष्ण की पूजा विशेष रूप से उनकी बाल्य और युवावस्था की रूप में की जाती है, जो भारत और विदेशों में व्यापक रूप से प्रचलित है। श्री कृष्ण शरणम मम: का उच्चारण करके भक्त भगवान श्री कृष्ण की शरण में आते हैं, यह मंत्र श्री कृष्ण की कृपा और संरक्षण प्राप्त करने का एक प्रमुख उपाय माना जाता है।Stotra
Bhagavad Gita 17 Chapter (भगवत गीता सातवाँ अध्याय)
भगवद्गीता का 17वां अध्याय "श्रद्धात्रयविभाग योग" (The Yoga of Threefold Faith) है, जो श्रद्धा (Faith) के तीन प्रकारों – सात्त्विक (Pure), राजसिक (Passionate), और तामसिक (Ignorant) – का वर्णन करता है। श्रीकृष्ण (Lord Krishna) अर्जुन (Arjuna) को बताते हैं कि व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव (Nature) और गुणों (Qualities) पर आधारित होती है। इस अध्याय में भोजन (Food), यज्ञ (Sacrifice), तप (Austerity), और दान (Charity) को सात्त्विक, राजसिक, और तामसिक श्रेणियों में विभाजित कर उनके प्रभावों का वर्णन किया गया है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि केवल सात्त्विक कर्म (Pure Actions) और श्रद्धा से ही आध्यात्मिक प्रगति (Spiritual Progress) और मोक्ष (Liberation) प्राप्त किया जा सकता है। यह अध्याय व्यक्ति को सद्गुणों (Virtues) और धर्म (Righteousness) के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।Bhagwat-Gita
Bhagavad Gita Nineth Chapter (भगवद गीता नौवाँ अध्याय)
भगवद गीता नौवां अध्याय "राज विद्या राज गुह्य योग" कहलाता है। इसमें श्रीकृष्ण भक्ति के महत्व को बताते हैं और इसे सबसे गोपनीय ज्ञान कहते हैं। वे यह भी समझाते हैं कि जो व्यक्ति ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखता है, वह उनके विशेष कृपा का पात्र बनता है। यह अध्याय "भक्ति योग", "ईश्वर की कृपा", और "गुप्त ज्ञान" को उजागर करता है।Bhagwat-Gita
Bhagavad Gita fifth chapter (भगवद गीता पांचवां अध्याय)
भगवद गीता पांचवां अध्याय "कर्म-वैराग्य योग" कहलाता है। इसमें श्रीकृष्ण बताते हैं कि त्याग और कर्म के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। वे सिखाते हैं कि जब व्यक्ति फल की इच्छा छोड़े बिना कर्म करता है, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह अध्याय हमें "कर्मयोग" और "सन्यास" के बीच संतुलन बनाने का मार्ग दिखाता है।Bhagwat-Gita
Krishnashtakam (कृष्णाष्टकम्)
आदि शंकराचार्य द्वारा रचित "श्री कृष्णाष्टकम्" (Sri Krishnastakam/ श्रीकृष्णाष्टकम्) भगवान श्री कृष्ण के दिव्य गुणों और लीलाओं का सुंदर रूप से वर्णन करता है। इसमें कृष्ण के मोहक रूप, दयालु कर्म और उनके भक्तों पर फैलने वाली आनंद की बात की गई है। ये श्लोक केवलStotra