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Uddhava Gita - Chapter 4 (उद्धवगीता - चतुर्थोऽध्यायः)
उद्धवगीता - चतुर्थोऽध्यायः (Uddhava Gita - Chapter 4)
अथ चतुर्थोऽध्यायः ।
राजा उवाच ।
यानि यानि इह कर्माणि यैः यैः स्वच्छंदजन्मभिः ।
चक्रे करोति कर्ता वा हरिः तानि ब्रुवंतु नः ॥ 1॥
द्रुमिलः उवाच ।
यः वा अनंतस्य गुणान् अनंतान्
अनुक्रमिष्यन् सः तु बालबुद्धिः ।
रजांसि भूमेः गणयेत् कथंचित्
कालेन न एव अखिलशक्तिधाम्नः ॥ 2॥
भूतैः यदा पंचभिः आत्मसृष्टैः
पुरं विराजं विरचय्य तस्मिन् ।
स्वांशेन विष्टः पुरुषाभिधान
मवाप नारायणः आदिदेवः ॥ 3॥
यत् कायः एषः भुवनत्रयसंनिवेशः
यस्य इंद्रियैः तनुभृतां उभयैंद्रियाणि ।
ज्ञानं स्वतः श्वसनतः बलं ओजः ईहा
सत्त्वादिभिः स्थितिलयौद्भवः आदिकर्ता ॥ 4॥
आदौ अभूत् शतधृती रजस अस्य सर्गे
विष्णु स्थितौ क्रतुपतिः द्विजधर्मसेतुः ।
रुद्रः अपि अयाय तमसा पुरुषः सः आद्यः
इति उद्भवस्थितिलयाः सततं प्रजासु ॥ 5॥
धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्टः मूर्त्या
नारायणः नरः ऋषिप्रवरः प्रशांतः ।
नैष्कर्म्यलक्षणं उवाच चचार कर्म
यः अद्य अपि च आस्त ऋषिवर्यनिषेवितांघ्रिः ॥ 6॥
इंद्रः विशंक्य मम धाम जिघृक्षति इति
कामं न्ययुंक्त सगणं सः बदरिउपाख्यम् ।
गत्वा अप्सरोगणवसंतसुमंदवातैः
स्त्रीप्रेक्षण इषुभिः अविध्यतत् महिज्ञः ॥ 7॥
विज्ञाय शक्रकृतं अक्रमं आदिदेवः
प्राह प्रहस्य गतविस्मयः एजमानान् ।
मा भैष्ट भो मदन मारुत देववध्वः
गृह्णीत नः बलिं अशून्यं इमं कुरुध्वम् ॥ 8॥
इत्थं ब्रुवति अभयदे नरदेव देवाः
सव्रीडनम्रशिरसः सघृणं तं ऊचुः ।
न एतत् विभो त्वयि परे अविकृते विचित्रम्
स्वारामधीः अनिकरानतपादपद्मे ॥ 9॥
त्वां सेवतां सुरकृता बहवः अंतरायाः
स्वौको विलंघ्य परमं व्रजतां पदं ते ।
न अन्यस्य बर्हिषि बलीन् ददतः स्वभागान्
धत्ते पदं त्वं अविता यदि विघ्नमूर्ध्नि ॥ 10॥
क्षुत् तृट्त्रिकालगुणमारुतजैव्ह्यशैश्न्यान्
अस्मान् अपारजलधीन् अतितीर्य केचित् ।
क्रोधस्य यांति विफलस्य वश पदे गोः
मज्जंति दुश्चरतपः च वृथा उत्सृजंति ॥ 11॥
इति प्रगृणतां तेषां स्त्रियः अति अद्भुतदर्शनाः ।
दर्शयामास शुश्रूषां स्वर्चिताः कुर्वतीः विभुः ॥ 12॥
ते देव अनुचराः दृष्ट्वा स्त्रियः श्रीः इव रूपिणीः ।
गंधेन मुमुहुः तासां रूप औदार्यहतश्रियः ॥ 13॥
तान् आह देवदेव ईशः प्रणतान् प्रहसन् इव ।
आसां एकतमां वृंग्ध्वं सवर्णां स्वर्गभूषणाम् ॥
14॥
ॐ इति आदेशं आदाय नत्वा तं सुरवंदिनः ।
उर्वशीं अप्सरःश्रेष्ठां पुरस्कृत्य दिवं ययुः ॥ 15॥
इंद्राय आनम्य सदसि श्रुण्वतां त्रिदिवौकसाम् ।
ऊचुः नारायणबलं शक्रः तत्र आस विस्मितः ॥ 16॥
हंसस्वरूपी अवददत् अच्युतः आत्मयोगम्
दत्तः कुमार ऋषभः भगवान् पिता नः ।
विष्णुः शिवाय जगतां कलया अवतीर्णः
तेन आहृताः मधुभिदा श्रुतयः हयास्ये ॥ 17॥
गुप्तः अपि अये मनुः इला ओषधयः च मात्स्ये
क्रौडे हतः दितिजः उद्धरता अंभसः क्ष्माम् ।
कौर्मे धृतः अद्रिः अमृत उन्मथने स्वपृष्ठे
ग्राहात् प्रपन्नमिभराजं अमुंचत् आर्तम् ॥ 18॥
संस्तुन्वतः अब्धिपतितान् श्रमणान् ऋषीं च
शक्रं च वृत्रवधतः तमसि प्रविष्टम् ।
देवस्त्रियः असुरगृहे पिहिताः अनाथाः
जघ्ने असुरेंद्रं अभयाय सतां नृसिंहे ॥ 19॥
देव असुरे युधि च दैत्यपतीन् सुरार्थे
हत्वा अंतरेषु भुवनानि अदधात् कलाभिः ।
भूत्वा अथ वामनः इमां अहरत् बलेः क्ष्माम्
यांचाच्छलेन समदात् अदितेः सुतेभ्यः ॥ 20॥
निःक्षत्रियां अकृत गां च त्रिःसप्तकृत्वः
रामः तु हैहयकुल अपि अयभार्गव अग्निः ।
सः अब्धिं बबंध दशवक्त्रं अहन् सलंकम्
सीतापतिः जयति लोकं अलघ्नकीर्तिः ॥ 21॥
भूमेः भर अवतरणाय यदुषि अजन्मा जातः
करिष्यति सुरैः अपि दुष्कराणि ।
वादैः विमोहयति यज्ञकृतः अतदर्हान्
शूद्रां कलौ क्षितिभुजः न्यहनिष्यदंते ॥ 22॥
एवंविधानि कर्माणि जन्मानि च जगत् पतेः ।
भूरीणि भूरियशसः वर्णितानि महाभुज ॥ 23॥
इति श्रीमद्भगवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायामेकादशस्कंधे निमिजायंतसंवादे
चतुर्थोऽध्यायः ॥
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