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Narayaniyam Dashaka 86 (नारायणीयं दशक 86)
नारायणीयं दशक 86 (Narayaniyam Dashaka 86)
साल्वो भैष्मीविवाहे यदुबलविजितश्चंद्रचूडाद्विमानं
विंदन् सौभं स मायी त्वयि वसति कुरुंस्त्वत्पुरीमभ्यभांक्षीत् ।
प्रद्युम्नस्तं निरुंधन्निखिलयदुभटैर्न्यग्रहीदुग्रवीर्यं
तस्यामात्यं द्युमंतं व्यजनि च समरः सप्तविंशत्यहांतः ॥1॥
तावत्त्वं रामशाली त्वरितमुपगतः खंडितप्रायसैन्यं
सौभेशं तं न्यरुंधाः स च किल गदया शार्ङ्गमभ्रंशयत्ते ।
मायातातं व्यहिंसीदपि तव पुरतस्तत्त्वयापि क्षणार्धं
नाज्ञायीत्याहुरेके तदिदमवमतं व्यास एव न्यषेधीत् ॥2॥
क्षिप्त्वा सौभं गदाचूर्णितमुदकनिधौ मंक्षु साल्वेऽपि चक्रे-
णोत्कृत्ते दंतवक्त्रः प्रसभमभिपतन्नभ्यमुंचद्गदां ते ।
कौमोदक्या हतोऽसावपि सुकृतनिधिश्चैद्यवत्प्रापदैक्यं
सर्वेषामेष पूर्वं त्वयि धृतमनसां मोक्षणार्थोऽवतारः ॥3॥
त्वय्यायातेऽथ जाते किल कुरुसदसि द्यूतके संयतायाः
क्रंदंत्या याज्ञसेन्याः सकरुणमकृथाश्चेलमालामनंताम् ।
अन्नांतप्राप्तशर्वांशजमुनिचकितद्रौपदीचिंतितोऽथ
प्राप्तः शाकान्नमश्नन् मुनिगणमकृथास्तृप्तिमंतं वनांते ॥4॥
युद्धोद्योगेऽथ मंत्रे मिलति सति वृतः फल्गुनेन त्वमेकः
कौरव्ये दत्तसैन्यः करिपुरमगमो दूत्यकृत् पांडवार्थम् ।
भीष्मद्रोणादिमान्ये तव खलु वचने धिक्कृते कौरवेण
व्यावृण्वन् विश्वरूपं मुनिसदसि पुरीं क्षोभयित्वागतोऽभूः ॥5॥
जिष्णोस्त्वं कृष्ण सूतः खलु समरमुखे बंधुघाते दयालुं
खिन्नं तं वीक्ष्य वीरं किमिदमयि सखे नित्य एकोऽयमात्मा ।
को वध्यः कोऽत्र हंता तदिह वधभियं प्रोज्झ्य मय्यर्पितात्मा
धर्म्यं युद्धं चरेति प्रकृतिमनयथा दर्शयन् विश्वरूपम् ॥6॥
भक्तोत्तंसेऽथ भीष्मे तव धरणिभरक्षेपकृत्यैकसक्ते
नित्यं नित्यं विभिंदत्ययुतसमधिकं प्राप्तसादे च पार्थे ।
निश्शस्त्रत्वप्रतिज्ञां विजहदरिवरं धारयन् क्रोधशाली-
वाधावन् प्रांजलिं तं नतशिरसमथो वीक्ष्य मोदादपागाः ॥7॥
युद्धे द्रोणस्य हस्तिस्थिररणभगदत्तेरितं वैष्णवास्त्रं
वक्षस्याधत्त चक्रस्थगितरविमहाः प्रार्दयत्सिंधुराजम् ।
नागास्त्रे कर्णमुक्ते क्षितिमवनमयन् केवलं कृत्तमौलिं
तत्रे त्रापि पार्थं किमिव नहि भवान् पांडवानामकार्षीत् ॥8॥
युद्धादौ तीर्थगामी स खलु हलधरो नैमिशक्षेत्रमृच्छ-
न्नप्रत्युत्थायिसूतक्षयकृदथ सुतं तत्पदे कल्पयित्वा ।
यज्ञघ्नं वल्कलं पर्वणि परिदलयन् स्नाततीर्थो रणांते
संप्राप्तो भीमदुर्योधनरणमशमं वीक्ष्य यातः पुरीं ते ॥9॥
संसुप्तद्रौपदेयक्षपणहतधियं द्रौणिमेत्य त्वदुक्त्या
तन्मुक्तं ब्राह्ममस्त्रं समहृत विजयो मौलिरत्नं च जह्रे ।
उच्छित्यै पांडवानां पुनरपि च विशत्युत्तरागर्भमस्त्रे
रक्षन्नंगुष्ठमात्रः किल जठरमगाश्चक्रपाणिर्विभो त्वम् ॥10॥
धर्मौघं धर्मसूनोरभिदधदखिलं छंदमृत्युस्स भीष्म-
स्त्वां पश्यन् भक्तिभूम्नैव हि सपदि ययौ निष्कलब्रह्मभूयम् ।
संयाज्याथाश्वमेधैस्त्रिभिरतिमहितैर्धर्मजं पूर्णकामं
संप्राप्तो द्वरकां त्वं पवनपुरपते पाहि मां सर्वरोगात् ॥11॥
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