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Shiva Sankalpa Upanishad (शिवसङ्कल्पोपनिषत् )
शिवसङ्कल्पोपनिषत् (शिव सङ्कल्पमस्तु)
(Shiva Sankalpa Upanishad)
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम् ।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 1॥
येन कर्माणि प्रचरन्ति धीरा यतो वाचा मनसा चारु यन्ति ।
यत्सम्मितमनु संयन्ति प्राणिनस्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 2॥
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः ।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 3॥
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु ।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 4॥
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव ।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 5॥
यस्मिन्नृचः साम यजूषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 6॥
यदत्र षष्ठं त्रिशतं सुवीरं यज्ञस्य गुह्यं नवनावमाय्यं (?) ।
दश पञ्च त्रिंशतं यत्परं च तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 7॥
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 8॥
येन द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षं च ये पर्वताः प्रदिशो दिशश्च ।
येनेदं जगद्व्याप्तं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 9॥
येनेदं विश्वं जगतो बभूव ये देवा अपि महतो जातवेदाः ।
तदेवाग्निस्तमसो ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 10॥
ये मनो हृदयं ये च देवा ये दिव्या आपो ये सूर्यरश्मिः ।
ते श्रोत्रे चक्षुषी सञ्चरन्तं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 11॥
अचिन्त्यं चाप्रमेयं च व्यक्ताव्यक्तपरं च यत ।
सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं ज्ञेयं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 12॥
एका च दश शतं च सहस्रं चायुतं च
नियुतं च प्रयुतं चार्बुदं च न्यर्बुदं च ।
समुद्रश्च मध्यं चान्तश्च परार्धश्च
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 13॥
ये पञ्च पञ्चदश शतं सहस्रमयुतं न्यर्बुदं च ।
तेऽग्निचित्येष्टकास्तं शरीरं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 14॥
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
यस्य योनिं परिपश्यन्ति धीरास्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥
यस्येदं धीराः पुनन्ति कवयो ब्रह्माणमेतं त्वा वृणुत इन्दुम् ।
स्थावरं जङ्गमं द्यौराकाशं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 16॥
परात् परतरं चैव यत्पराच्चैव यत्परम् ।
यत्परात् परतो ज्ञेयं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 17॥
परात् परतरो ब्रह्मा तत्परात् परतो हरिः ।
तत्परात् परतोऽधीशस्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 18॥
या वेदादिषु गायत्री सर्वव्यापी महेश्वरी ।
ऋग्यजुस्सामाथर्वैश्च तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 19॥
यो वै देवं महादेवं प्रणवं पुरुषोत्तमम् ।
यः सर्वे सर्ववेदैश्च तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 20॥
प्रयतः प्रणवोङ्कारं प्रणवं पुरुषोत्तमम् ।
ओङ्कारं प्रणवात्मानं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 21॥
योऽसौ सर्वेषु वेदेषु पठ्यते ह्यज इश्वरः ।
अकायो निर्गुणो ह्यात्मा तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 22॥
गोभिर्जुष्टं धनेन ह्यायुषा च बलेन च ।
प्रजया पशुभिः पुष्कराक्षं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 23॥
त्रियम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय
माऽमृतात्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 24॥
कैलासशिखरे रम्ये शङ्करस्य शिवालये ।
देवतास्तत्र मोदन्ते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 25॥
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोहस्त उत विश्वतस्पात् ।
सम्बाहुभ्यां नमति सम्पतत्रैर्द्यावापृथिवी
जनयन् देव एकस्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 26॥
चतुरो वेदानधीयीत सर्वशास्यमयं विदुः ।
इतिहासपुराणानां तन्मे मन शिवसङ्कन्ल्पमस्तु ॥ 27॥
मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम् ।
मा नो वधीः पितरं मोत मातरं प्रिया मा नः
तनुवो रुद्र रीरिषस्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 28॥
मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः ।
वीरान्मा नो रुद्र भामितो वधीर्हविष्मन्तः
नमसा विधेम ते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 29॥
ऋतं सत्यं परं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिङ्गलम् ।
ऊर्ध्वरेतं विरूपाक्षं विश्वरूपाय वै नमो नमः
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 30॥
कद्रुद्राय प्रचेतसे मीढुष्टमाय तव्यसे ।
वोचेम शन्तमं हृदे । सर्वो ह्येष रुद्रस्तस्मै रुद्राय
नमो अस्तु तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 31॥
ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्तात् वि सीमतः सुरुचो वेन आवः ।
स बुध्निया उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिं
असतश्च विवस्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 32॥
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव ।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय
हविषा विधेम तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 33॥
य आत्मदा बलदा यस्य विश्वे उपासते प्रशिषं यस्य देवाः ।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय
हविषा विधेम तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 34॥
यो रुद्रो अग्नौ यो अप्सु य ओषधीषु यो रुद्रो विश्वा भुवनाऽऽविवेश ।
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 35॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियं
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 36॥
य इदं शिवसङ्कल्पं सदा ध्यायन्ति ब्राह्मणाः ।
ते परं मोक्षं गमिष्यन्ति तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ 37॥
इति शिवसङ्कल्पमन्त्राः समाप्ताः ।
(शैव-उपनिषदः)
इति शिवसङ्कल्पोपनिषत् समाप्त ।
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Shri Amarnath Ashtakam (श्री अमरनाथाष्टकम्)
Shri Amarnath Ashtakam भगवान शिव के अमरनाथ धाम में स्थित उनके दिव्य रूप की महिमा का वर्णन करता है, जिन्हें "Lord of Immortality" और "Supreme Divine Protector" माना जाता है। यह स्तोत्र अमरनाथ यात्रा की महिमा और शिवलिंग के दिव्य स्वरूप की पूजा करता है, जिसे "Sacred Shiva Lingam" और "Cosmic Energy Source" के रूप में पूजित किया जाता है। Shri Amarnath Ashtakam का पाठ "Shiva Devotional Hymn" और "Divine Blessings Chant" के रूप में किया जाता है। इसके नियमित पाठ से भक्तों को "Spiritual Protection" और "Inner Peace" प्राप्त होती है। यह स्तोत्र "Lord Shiva's Divine Grace" और "Blessings for Prosperity" के रूप में अत्यधिक प्रभावी है। इसका जाप करने से जीवन में "Positive Energy" का प्रवाह होता है और व्यक्ति को "Spiritual Awakening" और "Cosmic Protection" मिलती है। Shri Amarnath Ashtakam को "Sacred Prayer for Blessings" और "Shiva's Eternal Grace" के रूप में पढ़ने से जीवन में सुख-समृद्धि आती है।Ashtakam
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