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Dakshina Murthy Stotram (दक्षिणा मूर्ति स्तोत्रम्)
दक्षिणा मूर्ति स्तोत्रम्
(Dakshina Murthy Stotram)
शान्तिपाठः
ॐ यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं
यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।
तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं
मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥
ध्यानम्
ॐ मौनव्याख्या प्रकटित परब्रह्मतत्त्वं युवानं
वर्षिष्ठान्ते वसदृषिगणैरावृतं ब्रह्मनिष्ठैः ।
आचार्येन्द्रं करकलित चिन्मुद्रमानन्दमूर्तिं
स्वात्मारामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे ॥ 1 ॥
वटविटपिसमीपेभूमिभागे निषण्णं
सकलमुनिजनानां ज्ञानदातारमारात् ।
त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं
जननमरणदुःखच्छेददक्षं नमामि ॥ 2 ॥
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तुच्छिन्नसंशयाः ॥ 3 ॥
निधये सर्वविद्यानां भिषजे भवरोगिणाम् ।
गुरवे सर्वलोकानां दक्षिणामूर्तये नमः ॥ 4 ॥
ॐ नमः प्रणवार्थाय शुद्धज्ञानैकमूर्तये ।
निर्मलाय प्रशान्ताय दक्षिणामूर्तये नमः ॥ 5 ॥
चिद्घनाय महेशाय वटमूलनिवासिने ।
सच्चिदानन्दरूपाय दक्षिणामूर्तये नमः ॥ 6 ॥
ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने ।
व्योमवद्व्याप्तदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ॥ 7 ॥
अङ्गुष्ठतर्जनी योगमुद्रा व्याजेनयोगिनाम् ।
शृत्यर्थं ब्रह्मजीवैक्यं दर्शयन्योगता शिवः ॥ 8 ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
स्तोत्रम्
विश्वं दर्पण-दृश्यमान-नगरी तुल्यं निजान्तर्गतं
पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया ।
यस्साक्षात्कुरुते प्रभोधसमये स्वात्मानमे वाद्वयं
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 1 ॥
बीजस्यान्तरि-वाङ्कुरो जगदितं प्राङ्निर्विकल्पं पुनः
मायाकल्पित देशकालकलना वैचित्र्यचित्रीकृतम् ।
मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 2 ॥
यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते
साक्षात्तत्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान् ।
यस्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुरनावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 3 ॥
नानाच्छिद्र घटोदर स्थित महादीप प्रभाभास्वरं
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरण द्वारा बहिः स्पन्दते ।
जानामीति तमेव भान्तमनुभात्येतत्समस्तं जगत्
तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 4 ॥
देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः
स्त्री बालान्ध जडोपमास्त्वहमिति भ्रान्ताभृशं वादिनः ।
मायाशक्ति विलासकल्पित महाव्यामोह संहारिणे
तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 5 ॥
राहुग्रस्त दिवाकरेन्दु सदृशो माया समाच्छादनात्
सन्मात्रः करणोप संहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान् ।
प्रागस्वाप्समिति प्रभोदसमये यः प्रत्यभिज्ञायते
तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 6 ॥
बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्ता स्वनु वर्तमान महमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया
तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 7 ॥
विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः
शिष्यचार्यतया तथैव पितृ पुत्राद्यात्मना भेदतः ।
स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो माया परिभ्रामितः
तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 8 ॥
भूरम्भांस्यनलोऽनिलोम्बर महर्नाथो हिमांशुः पुमान्
इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम् ।
नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभो
तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 9 ॥
सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे
तेनास्व श्रवणात्तदर्थ मननाद्ध्यानाच्च सङ्कीर्तनात् ।
सर्वात्मत्व महाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः
सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतं चैश्वर्य-मव्याहतम् ॥ 10 ॥
॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं दक्षिणामूर्तिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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