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Uddhava Gita - Chapter 9 (उद्धवगीता - नवमोऽध्यायः)
उद्धवगीता - नवमोऽध्यायः (Uddhava Gita - Chapter 9)
अथ नवमोऽध्यायः ।
ब्राह्मणः उवाच ।
परिग्रहः हि दुःखाय यत् यत् प्रियतमं नृणाम् ।
अनंतं सुखं आप्नोति तत् विद्वान् यः तु अकिंचनः ॥ 1॥
सामिषं कुररं जघ्नुः बलिनः ये निरामिषाः ।
तत् आमिषं परित्यज्य सः सुखं समविंदत ॥ 2॥
न मे मानावमानौ स्तः न चिंता गेहपुत्रिणाम् ।
आत्मक्रीडः आत्मरतिः विचरामि इह बालवत् ॥ 3॥
द्वौ एव चिंतया मुक्तौ परम आनंदः आप्लुतौ ।
यः विमुग्धः जडः बालः यः गुणेभ्यः परं गतः ॥ 4॥
क्वचित् कुमारी तु आत्मानं वृणानान् गृहं आगतान् ।
स्वयं तान् अर्हयामास क्वापि यातेषु बंधुषु ॥ 5॥
तेषं अभ्यवहारार्थं शालीन् रहसि पार्थिव ।
अवघ्नंत्याः प्रकोष्ठस्थाः चक्रुः शंखाः स्वनं महत् ॥
6॥
सा तत् जुगुप्सितं मत्वा महती व्रीडिता ततः ।
बभंज एकैकशः शंखान् द्वौ द्वौ पाण्योः अशेषयत् ॥
7॥
उभयोः अपि अभूत् घोषः हि अवघ्नंत्याः स्म शंखयोः ।
तत्र अपि एकं निरभिदत् एकस्मान् न अभवत् ध्वनिः ॥ 8॥
अन्वशिक्षं इमं तस्याः उपदेशं अरिंदम ।
लोकान् अनुचरन् एतान् लोकतत्त्वविवित्सया ॥ 9॥
वासे बहूनां कलहः भवेत् वार्ता द्वयोः अपि ।
एकः एव चरेत् तस्मात् कुमार्याः इव कंकणः ॥ 10॥
मनः एकत्र संयुज्यात् जितश्वासः जित आसनः ।
वैराग्याभ्यासयोगेन ध्रियमाणं अतंद्रितः ॥ 11॥
यस्मिन् मनः लब्धपदं यत् एतत्
शनैः शनैः मुंचति कर्मरेणून् ।
सत्त्वेन वृद्धेन रजः तमः च
विधूय निर्वाणं उपैति अनिंधनम् ॥ 12॥
तत् एवं आत्मनि अवरुद्धचित्तः
न वेद किंचित् बहिः अंतरं वा ।
यथा इषुकारः नृपतिं व्रजंतम्
इषौ गतात्मा न ददर्श पार्श्वे ॥ 13॥
एकचार्यनिकेतः स्यात् अप्रमत्तः गुहाशयः ।
अलक्ष्यमाणः आचारैः मुनिः एकः अल्पभाषणः ॥ 14॥
गृहारंभः अतिदुःखाय विफलः च अध्रुवात्मनः ।
सर्पः परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखं एधते ॥ 15॥
एको नारायणो देवः पूर्वसृष्टं स्वमायया ।
संहृत्य कालकलया कल्पांत इदमीश्वरः ॥ 16॥
एक एवाद्वितीयोऽभूदात्माधारोऽखिलाश्रयः ।
कालेनात्मानुभावेन साम्यं नीतासु शक्तिषु ।
सत्त्वादिष्वादिपुएरुषः प्रधानपुरुषेश्वरः ॥ 17॥
परावराणां परम आस्ते कैवल्यसंज्ञितः ।
केवलानुभवानंदसंदोहो निरुपाधिकः ॥ 18॥
केवलात्मानुभावेन स्वमायां त्रिगुणात्मिकाम् ।
संक्षोभयन्सृजत्यादौ तया सूत्रमरिंदम ॥ 19॥
तामाहुस्त्रिगुणव्यक्तिं सृजंतीं विश्वतोमुखम् ।
यस्मिन्प्रोतमिदं विश्वं येन संसरते पुमान् ॥ 20॥
यथा ऊर्णनाभिः हृदयात् ऊर्णां संतत्य वक्त्रतः ।
तया विहृत्य भूयस्तां ग्रसति एवं महेश्वरः ॥ 21॥
यत्र यत्र मनः देही धारयेत् सकलं धिया ।
स्नेहात् द्वेषात् भयात् वा अपि याति तत् तत् सरूपताम् ॥ 22॥
कीटः पेशस्कृतं ध्यायन् कुड्यां तेन प्रवेशितः ।
याति तत् स्सत्मतां राजन् पूर्वरूपं असंत्यजन् ॥ 23॥
एवं गुरुभ्यः एतेभ्यः एष मे शिक्षिता मतिः ।
स्वात्मा उपशिक्षितां बुद्धिं श्रुणु मे वदतः प्रभो ॥ 24॥
देहः गुरुः मम विरक्तिविवेकहेतुः
बिभ्रत् स्म सत्त्वनिधनं सतत अर्त्युत् अर्कम् ।
तत्त्वानि अनेन विमृशामि यथा तथा अपि
पारक्यं इति अवसितः विचरामि असंगः ॥ 25॥
जायात्मजार्थपशुभृत्यगृहाप्तवर्गान्
पुष्णाति यत् प्रियचिकीर्षया वितन्वन् ॥
स्वांते सकृच्छ्रं अवरुद्धधनः सः देहः
सृष्ट्वा अस्य बीजं अवसीदति वृक्षधर्मा ॥ 26॥
जिह्वा एकतः अमुं अवकर्षति कर्हि तर्षा
शिश्नः अन्यतः त्वक् उदरं श्रवणं कुतश्चित् ।
ग्राणः अन्यतः चपलदृक् क्व च कर्मशक्तिः
बह्व्यः सपत्न्यः इव गेहपतिं लुनंति ॥ 27॥
सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या
वृक्षान् सरीसृपपशून्खगदंशमत्स्यान् ।
तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय
ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ॥ 28॥
लब्ध्वा सुदुर्लभं इदं बहुसंभवांते
मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः ।
तूर्णं यतेत न पतेत् अनुमृत्युः यावत्
निःश्रेयसाय विषयः खलु सर्वतः स्यात् ॥ 29॥
एवं संजातवैराग्यः विज्ञानलोक आत्मनि ।
विचरामि महीं एतां मुक्तसंगः अनहंकृतिः ॥ 30॥
न हि एकस्मात् गुरोः ज्ञानं सुस्थिरं स्यात् सुपुष्कलम् ।
ब्रह्म एतत् अद्वितीयं वै गीयते बहुधा ऋषिभिः ॥ 31॥
श्रीभगवानुवाच ।
इत्युक्त्वा स यदुं विप्रस्तमामंत्रय गभीरधीः ।
वंदितो।आभ्यर्थितो राज्ञा ययौ प्रीतो यथागतम् ॥ 32॥
अवधूतवचः श्रुत्वा पूर्वेषां नः स पूर्वजः ।
सर्वसंगविनिर्मुक्तः समचित्तो बभूव ह ॥ 33॥
(इति अवधूतगीतम् ।)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायामेकादशस्कंधे भगवदुद्धवसंवादे
नवमोऽध्यायः ॥
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