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Ganesha Vajra Panjara Stotram (गणेश वज्र पंजर स्तोत्रम्)
गणेश वज्र पंजर स्तोत्रम् (Ganesha Vajra Panjara Stotram)
ध्यानम् ।
त्रिनेत्रं गजास्यं चतुर्बाहुधारं
परश्वादिशस्त्रैर्युतं भालचंद्रम् ।
नराकारदेहं सदा योगशांतं
गणेशं भजे सर्ववंद्यं परेशम् ॥ 1 ॥
बिंदुरूपो वक्रतुंडो रक्षतु मे हृदि स्थितः ।
देहांश्चतुर्विधांस्तत्त्वांस्तत्त्वाधारः सनातनः ॥ 2 ॥
देहमोहयुतं ह्येकदंतः सोऽहं स्वरूपधृक् ।
देहिनं मां विशेषेण रक्षतु भ्रमनाशकः ॥ 3 ॥
महोदरस्तथा देवो नानाबोधान् प्रतापवान् ।
सदा रक्षतु मे बोधानंदसंस्थो ह्यहर्निशम् ॥ 4 ॥
सांख्यान् रक्षतु सांख्येशो गजाननः सुसिद्धिदः ।
असत्येषु स्थितं मां स लंबोदरश्च रक्षतु ॥ 5 ॥
सत्सु स्थितं सुमोहेन विकटो मां परात्परः ।
रक्षतु भक्तवात्सल्यात् सदैकामृतधारकः ॥ 6 ॥
आनंदेषु स्थितं नित्यं मां रक्षतु समात्मकः ।
विघ्नराजो महाविघ्नैर्नानाखेलकरः प्रभुः ॥ 7 ॥
अव्यक्तेषु स्थितं नित्यं धूम्रवर्णः स्वरूपधृक् ।
मां रक्षतु सुखाकारः सहजः सर्वपूजितः ॥ 8 ॥
स्वसंवेद्येषु संस्थं मां गणेशः स्वस्वरूपधृक् ।
रक्षतु योगभावेन संस्थितो भवनायकः ॥ 9 ॥
अयोगेषु स्थितं नित्यं मां रक्षतु गणेश्वरः ।
निवृत्तिरूपधृक् साक्षादसमाधिसुखे रतः ॥ 10 ॥
योगशांतिधरो मां तु रक्षतु योगसंस्थितम् ।
गणाधीशः प्रसन्नात्मा सिद्धिबुद्धिसमन्वितः ॥ 11 ॥
पुरो मां गजकर्णश्च रक्षतु विघ्नहारकः ।
वाह्न्यां याम्यां च नैरृत्यां चिंतामणिर्वरप्रदः ॥ 12 ॥
रक्षतु पश्चिमे ढुंढिर्हेरंबो वायुदिक् स्थितम् ।
विनायकश्चोत्तरे तु प्रमोदश्चेशदिक् स्थितम् ॥ 13 ॥
ऊर्ध्वं सिद्धिपतिः पातु बुद्धीशोऽधः स्थितं सदा ।
सर्वांगेषु मयूरेशः पातु मां भक्तिलालसः ॥ 14 ॥
यत्र तत्र स्थितं मां तु सदा रक्षतु योगपः ।
पुरशुपाशसंयुक्तो वरदाभयधारकः ॥ 15 ॥
इदं गणपतेः प्रोक्तं वज्रपंजरकं परम् ।
धारयस्व महादेव विजयी त्वं भविष्यसि ॥ 16 ॥
य इदं पंजरं धृत्वा यत्र कुत्र स्थितो भवेत् ।
न तस्य जायते क्वापि भयं नानास्वभावजम् ॥ 17 ॥
यः पठेत् पंजरं नित्यं स ईप्सितमवाप्नुयात् ।
वज्रसारतनुर्भूत्वा चरेत्सर्वत्र मानवः ॥ 18 ॥
त्रिकालं यः पठेन्नित्यं स गणेश इवापरः ।
निर्विघ्नः सर्वकार्येषु ब्रह्मभूतो भवेन्नरः ॥ 19 ॥
यः शृणोति गणेशस्य पंजरं वज्रसंज्ञकम् ।
आरोग्यादिसमायुक्तो भवते गणपप्रियः ॥ 20 ॥
धनं धान्यं पशून् विद्यामायुष्यं पुत्रपौत्रकम् ।
सर्वसंपत्समायुक्तमैश्वर्यं पठनाल्लभेत् ॥ 21 ॥
न भयं तस्य वज्रात्तु चक्राच्छूलाद्भवेत् कदा ।
शंकरादेर्महादेव पठनादस्य नित्यशः ॥ 22 ॥
यं यं चिंतयते मर्त्यस्तं तं प्राप्नोति शाश्वतम् ।
पठनादस्य विघ्नेश पंजरस्य निरंतरम् ॥ 23 ॥
लक्षावृत्तिभिरेवं स सिद्धपंजरको भवेत् ।
स्तंभयेदपि सूर्यं तु ब्रह्मांडं वशमानयेत् ॥ 24 ॥
एवमुक्त्वा गणेशानोऽंतर्दधे मुनिसत्तम ।
शिवो देवादिभिर्युक्तो हर्षितः संबभूव ह ॥ 25 ॥
इति श्रीमन्मुद्गले महापुराणे धूम्रवर्णचरिते वज्रपंजरकथनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ।
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