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Gita Govindam trutiyah sargah - Mugdh Madhusudanah (गीतगोविन्दं तृतीयः सर्गः - मुग्ध मधुसूदनः)
गीतगोविन्दं तृतीयः सर्गः - मुग्ध मधुसूदनः
(Gita Govindam trutiyah sargah - Mugdh Madhusudanah)
॥ तृतीयः सर्गः ॥
॥ मुग्धमधुसूदनः ॥
कंसारिरपि संसारवासनाबन्धशृङ्खलाम् ।
राधामाधाय हृदये तत्याज व्रजसुन्दरीः ॥ 18 ॥
इतस्ततस्तामनुसृत्य राधिका-मनङ्गबाणव्रणखिन्नमानसः ।
कृतानुतापः स कलिन्दनन्दिनी-तटान्तकुञ्जे विषसाद माधवः ॥ 19 ॥
॥ गीतं 7 ॥
मामियं चलिता विलोक्य वृतं वधूनिचयेन ।
सापराधतया मयापि न वारितातिभयेन ॥
हरि हरि हतादरतया गता सा कुपितेव ॥ 1 ॥
किं करिष्यति किं वदिष्यति सा चिरं विरहेण ।
किं धनेन जनेन किं मम जीवनेन गृहेण ॥ 2 ॥
चिन्तयामि तदाननं कुटिलभ्रु कोपभरेण ।
शोणपद्ममिवोपरि भ्रमताकुलं भ्रमरेण ॥ 3 ॥
तामहं हृदि सङ्गतामनिशं भृशं रमयामि ।
किं वनेऽनुसरामि तामिह किं वृथा विलपामि ॥ 4 ॥
तन्वि खिन्नमसूयया हृदयं तवाकलयामि ।
तन्न वेद्मि कुतो गतासि न तेन तेऽनुनयामि ॥ 5 ॥
दृश्यते पुरतो गतागतमेव मे विदधासि ।
किं पुरेव ससम्भ्रमं परिरम्भणं न ददासि ॥ 6 ॥
क्षम्यतामपरं कदापि तवेदृशं न करोमि ।
देहि सुन्दरि दर्शनं मम मन्मथेन दुनोमि ॥ 7 ॥
वर्णितं जयदेवकेन हरेरिदं प्रवणेन ।
किन्दुबिल्वसमुद्रसम्भवरोहिणीरमणेन ॥ 8 ॥
हृदि बिसलताहारो नायं भुजङ्गमनायकः कुवलयदलश्रेणी कण्ठे न सा गरलद्युतिः ।
मलयजरजो नेदं भस्म प्रियारहिते मयि प्रहर न हरभ्रान्त्यानङ्ग क्रुधा किमु धावसि ॥ 20 ॥
पाणौ मा कुरु चूतसायकममुं मा चापमारोपय क्रीडानिर्जितविश्व मूर्छितजनाघातेन किं पौरुषम् ।
तस्या एव मृगीदृशो मनसिजप्रेङ्खत्कटाक्षाशुग-श्रेणीजर्जरितं मनागपि मनो नाद्यापि सन्धुक्षते ॥ 21 ॥
भ्रूचापे निहितः कटाक्षविशिखो निर्मातु मर्मव्यथां श्यामात्मा कुटिलः करोतु कबरीभारोऽपि मारोद्यमम् ।
मोहं तावदयं च तन्वि तनुतां बिम्बादरो रागवान् सद्वृत्तस्तनमण्दलस्तव कथं प्राणैर्मम क्रीडति ॥ 22 ॥
तानि स्पर्शसुखानि ते च तरलाः स्निग्धा दृशोर्विभ्रमा-स्तद्वक्त्राम्बुजसौरभं स च सुधास्यन्दी गिरां वक्रिमा ।
सा बिम्बाधरमाधुरीति विषयासङ्गेऽपि चेन्मानसं तस्यां लग्नसमाधि हन्त विरहव्याधिः कथं वर्धते ॥ 23 ॥
भ्रूपल्लवं धनुरपाङ्गतरङ्गितानि बाणाः गुणः श्रवणपालिरिति स्मरेण ।
तस्यामनङ्गजयजङ्गमदेवतायां अस्त्राणि निर्जितजगन्ति किमर्पितानि ॥ 24 ॥
[एषः श्लोकः केषुचन संस्करणेषु विद्यते]
तिर्यक्कण्ठ विलोल मौलि तरलोत्तं सस्य वंशोच्चरद्-
दीप्तिस्थान कृतावधान ललना लक्षैर्न संलक्षिताः ।
सम्मुग्धे मधुसूदनस्य मधुरे राधामुखेन्दौ सुधा-
सारे कन्दलिताश्चिरं दधतु वः क्षेमं कटाक्षोर्म्मय ॥ (25) ॥
॥ इति श्रीगीतगोविन्दे मुग्धमधुसूदनो नाम तृतीयः सर्गः ॥
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