Anant Chaturdashi (अनंत चतुर्दशी) Date :- 17.09.2024

अनंत चतुर्दशी 2024 Date & Time :- अनंत चतुर्दशी 2024 मंगलवार, 17 सितंबर 2024 को मनाई जाएगी। अनंत चतुर्दशी 2024 पूजा मुहूर्त सुबह 06:07 बजे से शुरू होकर रात 11:44 बजे तक रहेगा। इस पूजा मुहूर्त की अवधि 05 घंटे 37 मिनट होगी। अनंत चतुर्दशी 2024 कथा (Story) अनंत चतुर्दशी की कहानी सुशीला नामक एक ब्राह्मण की बेटी से जुड़ी है, जिसका विवाह ऋषि कौंडिन्य से हुआ था। जब वह विवाह के बाद ऋषि के घर गई, तो ऋषि ने नदी तट पर शाम की प्रार्थना शुरू कर दी। तभी सुशीला ने देखा कि बहुत सारी महिलाएँ पूजा कर रही हैं, और जब उसने इसके बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया कि वे भगवान अनंत को प्रसन्न करने के लिए उपवास करके प्रार्थना कर रही हैं। उसने अनंत चतुर्थी व्रत के महत्व के बारे में विस्तार से जाना और तुरंत खुद भी ऐसा करने का फैसला किया। उसने अपनी बांह पर 14 गांठों वाला पवित्र धागा बांधा। जब कौंडिन्य ने उसकी बांह पर धागा देखा, तो उन्होंने इसके बारे में पूछा। उसने उन्हें पूरी कहानी सुनाई। इस पर, कौंडिन्य क्रोधित हो गए और उन्होंने अनुष्ठान से इनकार कर दिया। उन्होंने दिव्य धागे को खींच लिया और उसे आग में फेंक दिया। भगवान का अपमान करने से उन्हें अपनी सारी संपत्ति खोनी पड़ी। उन्हें जल्द ही अपनी गलतियों का एहसास हुआ और उन्होंने कठोर तपस्या करने की कसम खाई जब तक कि भगवान अनंत उन्हें माफ नहीं कर देते और उनके सामने प्रकट नहीं हो जाते। हालाँकि, कई प्रयासों के बावजूद, देवता नहीं आए। इसलिए, कौंडिन्य ने आत्महत्या करने का फैसला किया लेकिन एक साधु ने उन्हें बचा लिया। फिर उन्हें उनके द्वारा गुफा में ले जाया गया, जहाँ भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट हुए। देवता ने उन्हें सलाह दी कि वे भगवान अनंत की पूजा करें और 14 साल तक व्रत रखें, ताकि उन्हें अपनी संपत्ति वापस मिल सके। कौंडिन्य ने पूरी ईमानदारी से ऐसा किया और अपनी संपत्ति वापस पा ली। उस दिन से, भक्त अनंत चतुर्दशी का व्रत पूरी श्रद्धा के साथ रखते हैं। अनंत चतुर्दशी 2024 पूजा विधि अनंत चतुर्दशी 2024 तिथि और समय पर, उपासकों को निम्नलिखित अनुष्ठान करने चाहिए: भक्त लकड़ी के पटरे पर सिंदूर के 14 तिलक (लंबवत, छोटी पट्टियाँ) लगाकर अनंत चतुर्दशी 2024 पूजा विधि शुरू करते हैं। इन तिलकों पर 14 पुए (गेहूं की मीठी तली हुई रोटी) और 14 पूरियां रखें। इसके बाद, श्रद्धालु लकड़ी की सतह पर पंचामृत (क्षीरसागर) डालते हैं। एक ककड़ी पर 14 गांठों से बना पवित्र धागा बांधा जाता है, जो भगवान अनंत का प्रतीक है, और फिर इसे पंचामृत या 'दूध के सागर' में 5 बार हिलाया जाता है। व्रत रखने के बाद भक्तों की बांह पर कुमकुम और हल्दी से रंगा हुआ पवित्र धागा अनंत सूत्र बांधा जाता है। पवित्र अनंत चतुर्दशी धागा 14 दिनों के बाद उतार लिया जाता है।अनंत चतुर्दशी कब और कैसे मनाई जाती है? अनंत चतुर्दशी भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी (सितंबर) को मनाई जाती है। यह त्योहार मुख्यतः महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और उत्तर भारत के कई हिस्सों में मनाया जाता है। इस दिन लोग भगवान विष्णु की पूजा करते हैं और अनंत सूत्र बांधते हैं। अनंत चतुर्दशी का पौराणिक महत्व क्या है? अनंत चतुर्दशी का पौराणिक महत्व भगवान विष्णु से जुड़ा है। कथा के अनुसार, पांडवों ने अपने वनवास के दौरान भगवान विष्णु की आराधना की थी और उनसे अनंत सूत्र प्राप्त किया था। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा और अनंत सूत्र बांधने से सभी कष्ट और बाधाएं दूर होती हैं। अनंत चतुर्दशी का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व क्या है? अनंत चतुर्दशी का धार्मिक महत्व भगवान विष्णु की पूजा और उनके आशीर्वाद से जुड़ा है। इस दिन लोग व्रत रखते हैं और भगवान विष्णु की विशेष पूजा करते हैं। सांस्कृतिक दृष्टिकोण से, अनंत चतुर्दशी एक सामाजिक और सांस्कृतिक पर्व है। यह उत्सव भगवान विष्णु के प्रति भक्तों की श्रद्धा और विश्वास को दर्शाता है और समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ावा देता है। अनंत चतुर्दशी की तैयारी कैसे होती है? अनंत Chaturdashi की तैयारी में लोग विशेष पूजा सामग्री का प्रबंध करते हैं। घरों और मंदिरों को सजाया जाता है और भगवान विष्णु की मूर्तियों की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। लोग इस दिन विशेष पकवान बनाते हैं और उन्हें भगवान विष्णु को अर्पित करते हैं। अनंत चतुर्दशी का उत्सव कैसे मनाया जाता है? अनंत चतुर्दशी के दिन लोग सुबह जल्दी उठकर स्नान करते हैं और व्रत रखते हैं। दिन भर वे भगवान विष्णु की पूजा करते हैं और अनंत सूत्र बांधते हैं। इस दिन विशेष पूजा-अर्चना की जाती है और विष्णु मंत्र का जाप किया जाता है। भारत के विभिन्न हिस्सों में अनंत चतुर्दशी कैसे मनाई जाती है? भारत के विभिन्न हिस्सों में अनंत चतुर्दशी को अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इसे विशेष धूमधाम से मनाया जाता है, जबकि दक्षिण भारत में भी इसे उतने ही उत्साह से मनाया जाता है। अनंत चतुर्दशी का समग्र महत्व क्या है? अनंत चतुर्दशी केवल एक त्योहार नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और परंपराओं का एक अभिन्न हिस्सा है। यह पर्व धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है और समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ावा देता है। इस प्रकार, अनंत चतुर्दशी का उत्सव न केवल भारत में बल्कि विश्वभर में भारतीयों द्वारा बड़े हर्षोल्लास और उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह पर्व हमें अपने जीवन में खुशियों, समृद्धि और शांति की ओर अग्रसर करता है और समाज में एकजुटता और प्रेम का संदेश फैलाता है।

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Hari Sharan Ashtakam (हरि शरण अष्टकम): हरी शरण अष्टकम Lord Hari या Mahavishnu को समर्पित एक Ashtakam है। Mahabharata के Vishnu Sahasranama Stotra में "Hari" नाम Vishnu का 650वां नाम है। संस्कृत शब्द 'Sharanam' का अर्थ है Shelter। यह मंत्र हमें Hari's Shelter में लाने की प्रार्थना करता है, जो Place of Refuge है। Hari's Protection का आशीर्वाद सभी Anxieties को दूर कर देता है। Hari Sharan Ashtakam Stotra Prahlad द्वारा Lord Hari की Praise में रचित और गाया गया था। यह प्रार्थना Vishnu को Hari के रूप में समर्पित है। Hari का अर्थ है वह जो आपको True Path दिखाते हैं और उस Illusion (Maya) को दूर करते हैं जिसमें आप जी रहे हैं। यदि इस Stotra का सच्चे मन और Devotion के साथ पाठ किया जाए, तो यह व्यक्ति को Moksha (Ultimate Liberation) के मार्ग पर स्थापित कर सकता है। Hari Vedas, Guru Granth Sahib, और South Asian Sacred Texts में Supreme Absolute का एक नाम है। Rigveda's Purusha Suktam (जो Supreme Cosmic Being की Praise करता है), में Hari God (Brahman) का पहला और सबसे महत्वपूर्ण नाम है। Yajurveda's Narayan Suktam के अनुसार, Hari और Purusha के बाद Supreme Being का वैकल्पिक नाम Narayan है। Hindu Tradition में, Hari और Vishnu को एक-दूसरे के समान माना जाता है। Vedas में, किसी भी Recitation के पहले "Hari Om" Mantra का उच्चारण करने का नियम है, ताकि यह घोषित किया जा सके कि हर Ritual उस Supreme Divine को समर्पित है, भले ही वह किसी भी Demi-God की Praise क्यों न हो। Hinduism में, किसी भी God's Praise Song को "Hari Kirtan" कहा जाता है और Storytelling को "Hari Katha" के रूप में जाना जाता है।
Ashtakam

Sarawati Suktam (सरस्वती सूक्तम्)

सरस्वती सूक्तम् (Sarawati Suktam) (ऋ.वे. 6.61) इयम् ददाद्रभसमृणच्युतं दिवोदासं वँद्र्यश्वाय दाशुषे । या शश्वंतमाचखशदावसं पणिं ता ते दात्राणि तविषा सरस्वति ॥ 1 ॥ इयं शुष्मेभिर्बिसखा इवारुजत्सानु गिरीणां तविषेभिरूर्मिभिः । पारावतघ्नीमवसे सुवृक्तिभिस्सरस्वती मा विवासेम धीतिेभिः ॥ 2 ॥ सरस्वति देवनिदो नि बर्हय प्रजां-विंश्यस्य बृसयस्य मायिनः । उत क्षितिभ्योऽवनीरविंदो विषमेभ्यो अस्रवो वाजिनीवति ॥ 3 ॥ प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती । धीनामवित्र्यवतु ॥ 4 ॥ यस्त्वा देवी सरस्वत्युपब्रूते धने हिते । इंद्रं न वृत्रतूर्ये ॥ 5 ॥ त्वं देवी सरस्वत्यवा वाजेषु वाजिनि । रदा पूषेव नः सनिम् ॥ 6 ॥ उत स्या नः सरस्वती घोरा हिरण्यवर्तनिः । वृत्रघ्नी वष्टि सुष्टुतिम् ॥ 7 ॥ यस्या अनंतो अह्रुतस्त्वेषश्चरिष्णुरर्णवः । अमश्चरति रोरुवत् ॥ 8 ॥ सा नो विश्वा अति द्विषः स्वसृरन्या ऋतावरी । अतन्नहेव सूर्यः ॥ 9 ॥ उत नः प्रिया प्रियासु सप्तस्वसा सुजुष्टा । सरस्वती स्तोम्या भूत् ॥ 10 ॥ आपप्रुषी पार्थिवान्युरु रजो अंतरिक्षम् । सरस्वती निदस्पातु ॥ 11 ॥ त्रिषधस्था सप्तधातुः पंच जाता वर्धयंती । वाजेवाजे हव्या भूत् ॥ 12 ॥ प्र या महिम्ना महिनासु चेकिते द्युम्नेभिरन्या अपसामपस्तमा । रथ इव बृहती विभ्वने कृतोपस्तुत्या चिकितुषा सरस्वती ॥ 13 ॥ सरस्वत्यभि नो नेषि वस्यो माप स्फरीः पयसा मा न आ धक् । जुषस्व नः सख्या वेश्या च मा त्वत क्षेत्राण्यारणानि गन्म ॥ 14 ॥ **(ऋ.वे. 7.95)** प्र क्षोदसा धायसा सस्र एषा सरस्वती धरुणमायसी पूः । प्रबाबधाना रथ्येव याति विश्वा अपो महिना सिंधुरन्याः ॥ 15 ॥ एकाचेतत्सरस्वती नदीनां शुचिर्यती गिरिभ्य आ समुद्रात् । रायश्चेतंती भुवनस्य भूरेर्घृतं पयो दुदुहे नाहुषाय ॥ 16 ॥ स वावृधे नर्यो योषणासु वृषा शिशुर्वृषभो यज्ञियासु । स वाजिनं मघवद्भ्यो दधाति वि सातये तन्वं मामृजीत ॥ 17 ॥ उत स्या नः सरस्वती जुषाणोप श्रवत्सुभगा यज्ञे अस्मिन्न् । मितज्ञुभिर्नमस्यैरियाना राय युजा चिदुत्तरा सखिभ्यः ॥ 18 ॥ इमा जुह्वाना युष्मदा नमोभिः प्रति स्तोमं सरस्वति जुषस्व । तव शर्मन्प्रियतमे दधानाः उप स्थेयाम शरणं न वृक्षम् ॥ 19 ॥ अयमु ते सरस्वति वसिष्ठो द्वारावृतस्य सुभगे व्यावः । वर्ध शुभ्रे स्तुवते रासि वाजान्यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥ 20 ॥ **(ऋ.वे. 7.96)** बृहदु गायिषे वचोऽसुर्या नदीनाम् । सरस्वतीमिन्महया सुवृक्तिभिस्स्तोमैरवसिष्ठ रोदसी ॥ 21 ॥ उभे यत्ते महिना शुभ्रे अंधसी अधिक्षियांति पूरवः । सा नो बोध्यवित्री मरुत्सखा चोद राधो मघोनाम् ॥ 22 ॥ भद्रमिद्भद्रा कृणवत्सरस्वत्यकवारी चेतति वाजिनीवती । गृणााना जमदग्निवत्स्तुवाना च वसिष्ठवत् ॥ 23 ॥ जनीयंतो न्वग्रवः पुत्रीयंतः सुदानवः । सरस्वंतं हवामहे ॥ 24 ॥ ये ते सरस्व ऊर्मयो मधुमंतो घृतश्चुतः । तेभिर्नोऽविता भव ॥ 25 ॥ पीपिवांसं सरस्वतः स्तनं-योँ विश्वदर्शतः । भक्षीमहि प्रजामिषम् ॥ 26 ॥ **(ऋ.वे. 2.41.16)** अंबितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति । अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमंब नस्कृधि ॥ 27 ॥ त्वे विश्वा सरस्वति श्रितायूंषि देव्यम् । शुनहोत्रेषु मत्स्व प्रजां देवि दिदिड्ढि नः ॥ 28 ॥ इमा ब्रह्म सरस्वति जुशस्व वाजिनीवति । या ते मन्म गृत्समदा ऋतावरी प्रिया देवेषु जुह्वति ॥ 29 ॥ **(ऋ.वे. 1.3.10)** पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती । यज्ञं-वष्टु धियावसुः ॥ 30 ॥ चोदयित्री सूनृतानां चेतंती सुमतीनाम् । यज्ञं दधे सरस्वती ॥ 31 ॥ महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना । धियो विश्वा वि राजति ॥ 32 ॥ **(ऋ.वे. 10.17.7)** सरस्वतीं देवयंतो हवंते सरस्वतीमध्वरे तायमाने । सरस्वतीं सुकृतो अह्वयंत सरस्वती दाशुषे वार्यं दात् ॥ 33 ॥ सरस्वति या सरथं-यँयाथ स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदंती । आसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयस्वानमीवा इष आ धेह्यस्मे ॥ 34 ॥ सरस्वतीं-यां पितरो हवंते दक्षिणा यज्ञमभिनक्षमाणाः । सहस्रार्घमिलो अत्र भागं रायस्पोषं-यँजमानेषु धेहि ॥ 35 ॥ **(ऋ.वे. 5.43.11)** आ नो दिवो बृहतः पर्वतादा सरस्वती यजता गंतु यज्ञम् । हवं देवी जुजुषाणा घृताची शग्मां नो वाचमुशती शृणोतु ॥ 36 ॥ **(ऋ.वे. 2.32.4)** राकामहं सुहवां सुष्टुती हुवे शृणोतु नः सुभगा बोधतु त्मना । सीव्यत्वपः सूच्याच्छिद्यमानया ददातु वीरं शतदायमुक्थ्यम् ॥ 37 ॥ यास्ते राके सुमतयः सुपेशसो याभिर्ददासि दाशुषे वसूनि । ताभिर्नो अद्य सुमनाः उपागहि सहस्रपोषं सुभगे रराणा ॥ 38 ॥ सिनीवाली पृथु्ष्टुके या देवानामसि स्वसा । जुषस्व हव्य माहुतं प्रजां देवि दिदिड्ढि नः ॥ 39 ॥ या सुबाहुः स्वंगुरिः सुषूमा बहुसूवरी । तस्यै विश्पत्न्यै हविः सिनीवाल्यै जुहोतन ॥ 40 ॥ या गुंगूर्या सिनीवाली या राका या सरस्वती । इंद्राणीमह्व ऊतये वरुणानीं स्वस्तये ॥ 41 ॥ ॐ शांति: शांति: शांति:
Sukt

Eighteen Shaktipeeth Stotram (अष्टादश शक्तिपीठ स्तोत्रम्)

श्री आदि शंकराचार्य ने इस अष्टदशा शक्ति पीठ स्तोत्रम की रचना की। अष्टदशा शक्ति पीठ स्तोत्रम एक पवित्र स्तोत्र है जिसमें 18 शक्तिपीठों और वहां पूजी जाने वाली देवी-देवताओं के नामों का उल्लेख है। इसकी रचना श्री आदि शंकराचार्य ने की थी। अष्टदशा का शाब्दिक अर्थ अठारह होता है। अष्टदशा शक्ति पीठ भारतीय उपमहाद्वीप में 18 पवित्र स्थान हैं जहाँ देवी शक्ति/पार्वती/गौरी की पूजा की जाती है। दक्ष यज्ञ के दौरान आग में कूदकर सती की मृत्यु हो जाने के बाद, भगवान शिव क्रोधित हो गए और उन्होंने दक्ष को मार डाला। भगवान शिव को उनकी सामान्य स्थिति में वापस लाने के लिए, भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र छोड़ा, जिसने सती के मृत शरीर को 18 टुकड़ों में विभाजित कर दिया, जो उपमहाद्वीप में 18 अलग-अलग स्थानों पर गिरा। ये 18 स्थान 18 शक्ति पीठ या अष्टदशा शक्ति पीठ हैं, जहाँ देवी पार्वती की अलग-अलग रूपों में पूजा की जाती है।
Stotra

Padmavati Stotram (पद्मावती स्तोत्रं)

पद्मावती स्तोत्रं: यह स्तोत्र देवी पद्मावती को समर्पित है और उनके आशीर्वाद और सौभाग्य के लिए जपा जाता है।
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Narayaniyam Dashaka 56 (नारायणीयं दशक 56)

नारायणीयं दशक 56 भगवान विष्णु के भक्तों के प्रति अनुग्रह और उनकी दिव्य लीलाओं का वर्णन करता है। यह अध्याय भगवान विष्णु की महिमा और उनकी असीम कृपा का वर्णन करता है।
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Satyanarayan Puja Vidhi (सत्यनारायण पूजा विधि)

सत्यनारायण पूजा विधि भगवान सत्यनारायण की पूजा करने का तरीका बताने वाला एक महत्वपूर्ण पाठ है। यह विधि भक्तों को भगवान सत्यनारायण की कृपा प्राप्त करने के लिए सही तरीके से पूजा करने में मदद करती है।
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Navavarana Vidhi (नवावर्ण विधि)

नवावर्ण विधि: यह नवदुर्गा के पूजा और अनुष्ठान की विधि का वर्णन करता है।
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Bhagawati Kali Puja Vidhi (भगवती काली पूजा विधि)

भगवती काली पूजा विधि देवी काली की पूजा करने का तरीका बताने वाला एक महत्वपूर्ण पाठ है। यह विधि भक्तों को देवी काली की कृपा प्राप्त करने के लिए सही तरीके से पूजा करने में मदद करती है।
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