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Uddhava Gita - Chapter 10 (उद्धवगीता - दशमोऽध्यायः)
उद्धवगीता - दशमोऽध्यायः (Uddhava Gita - Chapter 10)
अथ दशमोऽध्यायः ।
श्रीभगवान् उवाच ।
मया उदितेषु अवहितः स्वधर्मेषु मदाश्रयः ।
वर्णाश्रमकुल आचारं अकामात्मा समाचरेत् ॥ 1॥
अन्वीक्षेत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम् ।
गुणेषु तत्त्वध्यानेन सर्वारंभविपर्ययम् ॥ 2॥
सुप्तस्य विषयालोकः ध्यायतः वा मनोरथः ।
नानामकत्वात् विफलः तथा भेदात्मदीः गुणैः ॥ 3॥
निवृत्तं कर्म सेवेत प्रवृत्तं मत्परः त्यजेत् ।
जिज्ञासायां संप्रवृत्तः न अद्रियेत् कर्म चोदनाम् ॥ 4॥
यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान् मत्परः क्वचित् ।
मदभिज्ञं गुरं शांतं उपासीत मदात्मकम् ॥ 5॥
अमान्यमत्सरः दक्षः निर्ममः दृढसौहृदः ।
असत्वरः अर्थजिज्ञासुः अनसूयौः अमोघवाक् ॥ 6॥
जायापत्यगृहक्षेत्रस्वजनद्रविण आदिषु ।
उदासीनः समं पश्यन् सर्वेषु अर्थं इव आत्मनः ॥ 7॥
विलक्षणः स्थूलसूक्ष्मात् देहात् आत्मेक्षिता स्वदृक् ।
यथाग्निः दारुणः दाह्यात् दाहकः अन्यः प्रकाशकः ॥ 8॥
निरोध उत्पत्ति अणु बृहन् नानात्वं तत्कृतान् गुणान् ।
अंतः प्रविष्टः आधत्तः एवं देहगुणान् परः ॥ 9॥
यः असौ गुणैः विरचितः देहः अयं पुरुषस्य हि ।
संसारः तत् निबंधः अयं पुंसः विद्यात् छिदात्मनः ॥ 10॥
तस्मात् जिज्ञासया आत्मानं आत्मस्थं परम् ।
संगम्य निरसेत् एतत् वस्तुबुद्धिं यथाक्रमम् ॥ 11॥
आचार्यः अरणिः आद्यः स्यात् अंतेवासि उत्तर अरणिः ।
तत् संधानं प्रवचनं विद्या संधिः सुखावहः ॥ 12॥
वैशारदी सा अतिविशुद्धबुद्धिः
धुनोति मायां गुणसंप्रसूताम् ।
गुणान् च संदह्य यत् आत्मं एतत्
स्वयं च शाम्यति असमिद् यथा अग्निः ॥ 13॥
अथ एषां कर्मकर्तॄणां भोक्तॄणां सुखदुःखयोः ।
नानात्वं अथ नित्यत्वं लोककालागम आत्मनाम् ॥ 14॥
मन्यसे सर्वभावानां संस्था हि औत्पत्तिकी यथा ।
तत् तत् आकृतिभेदेन जायते भिद्यते च धीः ॥ 15॥
एवं अपि अंग सर्वेषां देहिनां देहयोगतः ।
काल अवयवतः संति भावा जन्मादयोः असकृत् ॥ 16॥
अत्र अपि कर्मणां कर्तुः अस्वातंत्र्यं च लक्ष्यते ।
भोक्तुः च दुःखसुखयोः कः अन्वर्थः विवशं भजेत् ॥ 17॥
न देहिनां सुखं किंचित् विद्यते विदुषां अपि ।
तथा च दुःखं मूढानां वृथा अहंकरणं परम् ॥ 18॥
यदि प्राप्तिं विघातं च जानंति सुखदुःखयोः ।
ते अपि अद्धा न विदुः योगं मृत्युः न प्रभवेत् यथा ॥ 19॥
कः अन्वर्थः सुखयति एनं कामः वा मृत्युः अंतिके ।
आघातं नीयमानस्य वध्यसि एव न तुष्टिदः ॥ 20॥
श्रुतं च दृष्टवत् दुष्टं स्पर्धा असूया अत्ययव्ययैः ।
बहु अंतराय कामत्वात् कृषिवत् च अपि निष्फलम् ॥ 21॥
अंतरायैः अविहतः यदि धर्मः स्वनुष्ठितः ।
तेनापि निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तत् श्रुणु ॥ 22॥
इष्त्वा इह देवताः यज्ञैः स्वर्लोकं याति याज्ञिकः ।
भुंजीत देववत् तत्र भोगान् दिव्यान् निज अर्जितान् ॥ 23॥
स्वपुण्य उपचिते शुभ्रे विमानः उपगीयते ।
गंधर्वैः विहरन्मध्ये देवीनां हृद्यवेषधृक् ॥ 24॥
स्त्रीभिः कामगयानेन किंकिणीजालमालिना ।
क्रीडन् न वेद आत्मपातं सुराक्रीडेषु निर्वृतः ॥ 25॥
तावत् प्रमोदते स्वर्गे यावत् पुण्यं समाप्यते ।
क्षीणपुण्यः पतति अर्वाक् अनिच्छन् कालचालितः ॥ 26॥
यदि अधर्मरतः संगात् असतां वा अजितेंद्रियः ।
कामात्मा कृपणः लुब्धः स्त्रैणः भूतविहिंसकः ॥ 27॥
पशून् अविधिना आलभ्य प्रेतभूतगणान् यजन् ।
नरकान् अवशः जंतुः गत्वा याति उल्बणं तमः ॥ 28॥
कर्माणि दुःख उदर्काणि कुर्वन् देहेन तैः पुनः ।
देहं आभजते तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिणः ॥ 29॥
लोकानां लोक पालानां मद्भयं कल्पजीविनाम् ।
ब्रह्मणः अपि भयं मत्तः द्विपराधपर आयुषः ॥ 30॥
गुणाः सृजंति कर्माणि गुणः अनुसृजते गुणान् ।
जीवः तु गुणसंयुक्तः भुंक्ते कर्मफलानि असौ ॥ 31॥
यावत् स्यात् गुणवैषम्यं तावत् नानात्वं आत्मनः ।
नानात्वं आत्मनः यावत् पारतंत्र्यं तदा एव हि ॥ 32॥
यावत् अस्य अस्वतंत्रत्वं तावत् ईश्वरतः भयम् ।
यः एतत् समुपासीरन् ते मुह्यंति शुचार्पिताः ॥ 33॥
कालः आत्मा आगमः लोकः स्वभावः धर्मः एव च ।
इति मां बहुधा प्राहुः गुणव्यतिकरे सति ॥ 34॥
उद्धवः उवाच ।
गुणेषु वर्तमानः अपि देहजेषु अनपावृताः ।
गुणैः न बध्यते देही बध्यते वा कथं विभो ॥ 35॥
कथं वर्तेत विहरेत् कैः वा ज्ञायेत लक्षणैः ।
किं भुंजीत उत विसृजेत् शयीत आसीत याति वा ॥ 36॥
एतत् अच्युत मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर ।
नित्यमुक्तः नित्यबद्धः एकः एव इति मे भ्रमः ॥ 37॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायामेकादशस्कंधे भगवदुद्धवसंवादे
दशमोऽध्यायः ॥
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